Saturday 8 August 2020

हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति

 परिचय


हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति एक स्वयंसेवी संस्था है।यह संस्था बिना किसी सरकारी वित्तीय सहयोग के कार्य करती है। समिति के कार्य समाज द्वारा दी गई सहायता से चलते हैं। 

समिति का उद्देश्य वैज्ञानिक मानसिकता पर आधारित समाज बनाने का है, ऐसा समाज जो भारतीय संविधान के मूल्यों तथा नियमों के अनुसार चलता है, जो एक नागरिक की प्रतिष्ठा, गरिमा, अधिकार तथा कर्तव्य को महत्त्व देता है। 

समाज के कमज़ोर तबकों का सशक्तीकरण करते हुए न्याय और समानता पर आधारित समाज का निर्माण करना समिति की प्राथमिकता है। इस मानवीय उद्देश्य के लिए हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति साहित्य, कला, शिक्षा, स्वास्थ्य, साक्षरता एवं विचार गोष्ठियों के क्षेत्र में काम कर के युवाओं, महिलाओं, बुद्धिजीवियों तथा जनसाधारण को संगठित करने का प्रयास करती है। 

हरियाणा के 13 ज़िलों में समिति के कार्यकर्ता हैं और 8 ज़िलों में संगठन की चुनी हुई कमेटियां काम करती हैं। इन ज़िलों में गांवों में भी समिति के अनेक कार्यकर्ता हैं जो निरंतर समाज-परिवर्तन के कार्य में लगे हैं।

Wednesday 29 July 2020

छपाक

छपाक 

मेरे इस लेख की भाषा आम बोलचाल की भाषा है, यानी गूढ़ नहीं है। हो सकता है कि मेरे विचार भी इतने ठोस न हों क्योंकि मैं सोचती हूँ कि विचारों के ठोस होने से हम अपने इर्द-गिर्द दीवार बना लेते हैं और विश्लेषण की क्षमता खो बैठते हैं। पर विचारों के भाव काफ़ी गहरे हैं।
मैं अभ्यस्त लेखक नहीं हूँ पर कवि हृदय रखती हूँ और शायद इसीलिए आगे आप जो पढ़ेंगे, यह कोई फ़िल्म समीक्षा नहीं है बल्कि एक फ़िल्म को देखते हुए, देखने के बाद मुझ पर और मेरे अंदर क्या गुज़रा वो साझा कर पाएँगे।

छपाक का ट्रेलर देख के ही मैं अंदर तक उस चीख से हिल चुकी थी। दीपिका पादुकोण जो मुख्य किरदार मालती निभाती हैं, इतना ज़्यादा प्रभाव छोड़ता है कि मैं बेसब्री से फ़िल्म का इंतज़ार करती हूँ। हालाँकि मैंने लक्ष्मी अग्रवाल (जिनसे यह किरदार प्रेरित था) के बारे में काफ़ी पढ़ा था, उनसे जुड़ी एक-दो डॉक्युमेंट्रीज़ देखी हुई थीं और साथ ही उनका एक बहुत प्रेरक टेड टॉक सुना हुआ था। मैं बस यह सोचती रही कि एक फ़िक्शन फ़िल्म के रूप में हम इसमें ऐसा क्या नया देख लेंगे। और फिर जनवरी में फ़िल्म रिलीज़ हुई और मैं इसे बड़े पर्दे पर देखने गई।

फ़िल्म एक विरोध-प्रदर्शन से शुरू होती है और स्क्रीन पर यह देखते ही हमारे मस्तिष्क में जेसिका लाल, निर्भया और लक्ष्मी अग्रवाल जैसे सभी केस आने लगते हैं। एक भ्रम होता है कि फ़िल्म शायद अब किरदार के जीवन का डॉक्युमेंट बन जाएगी। पर जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, यह एहसास होता है कि फ़िल्म सिर्फ़ मालती के बारे में नहीं है बल्कि मालती के माध्यम से हमें उस दुनिया से परिचित करवाती है जोकि हमारे इर्द-गिर्द है, हमें मालूम है मगर हम इस दुनिया को नज़रंदाज़ करते हैं। फ़िल्म मोटे तौर पर भले ही मालती की नज़र से उसकी आपबीती और जीवनसंघर्ष की गाथा लगती हो मगर असल में फ़िल्म के स्क्रीनप्ले को समझें तो वह दिखाई देता है जो मालती की कहानी के बाहर भी घट रहा है और इससे जुड़ा है। इस कहानी के विषय के कारण शायद हम बार-बार मालती के संग कहानी के दृष्टिकोण में गोते लगाते रहते हैं। कभी सभी कुछ मालती की दृष्टि देखते हैं, कभी समाज के उस व्यक्ति की जो सब कुछ देखते हुए अनदेखा करने या देख कर कुछ न कर पाने के कारण अपराध-बोध महसूस करता है।

अतिका चौहान के लेखन में एक निर्णय नज़र आता है कि एसिड गिरा के किसी की सूरत बिगाड़ना या किसी को चोट पहुंचाना अपने आप में एक घटिया अपराध है। इस अपराध में आप यह गुंजाइश नहीं देख सकते कि ऐसा करने वाले की मंशा क्या रही होगी। फ़िल्म भी इस बात पर बिलकुल समय न लगाते हुए, हमें मालती के साथ होने वाले जघन्य अपराध का होना दर्शाती है। जिसका कारण साफ़ है कि जो लोग ऐसे अपराधों को अख़बार की सुर्खी की तरह देखते हैं, वे भी अंदर तक हिल जाएँ। उन्हें यह एहसास हो कि यह कितना दर्दनाक और भयानक हो सकता है। उस पीड़ा को उतना ही तीव्र बनाने के लिए इस दृश्य और एसिड से जले चेहरे और शरीर को बार-बार दिखाना कितना अहम हो जाता है। फिर भी ये सब बिलकुल सेंसेशनल जर्नलिज़्म जैसा नहीं लगता और  वे अखबार की सुर्खियां जिन्हें हमने अपने रोज़ के जीवन में नज़रअंदाज़ कर दिया है, वापिस आँखों के आगे तैरने लगती हैं। न केवल कहानी बल्कि किरदारों को भी सोचा-समझा स्क्रीनस्पेस दिया गया है। आप कहानी के मूल भाव से भटकते नहीं। मालती की कहानी में सिर्फ़ मालती नहीं हो सकती; उसकी दुनिया, जिसमें वह रहती है, वह समाज, पड़ोस, परिवार, यहां तक कि खुदगर्ज़ पर फिर भी मददगार, सभी तरह के किरदारों की मौजूदगी है। कहानीकार ने बहुत सही माप-तोल के साथ सारे चरित्र लिखें हैं; फिर चाहे मालती का कन्नी काट जाने वाला दोस्त है, उसका पिता जो शराब की लत से मजबूर पर अच्छा पिता है, उसका भाई जो खुद उम्र के उस पड़ाव पर है जहां बच्चा पारिवारिक स्थितियों को समझने की क्षमता नहीं रखता बल्कि असहाय महसूस करने लगता है और इस सब पर उसकी कुंठा निकालती माँ। फिर घटना के बाद मिलने वाले सब किरदार, जैसे -- मीनाक्षी जो मालती का पता निकाल अमोल को उस तक पहुंचाती है पर इसमें शुरुआत में उसका खुद का स्वार्थ निहित होता है, अमोल जो फ़िल्म का हीरो बिलकुल नहीं है (बावजूद इसके कि वह एसिड-पीड़ितों के लिए संघर्ष करने की एक कोशिश से जुड़ा है), वकील जिन्हें इस केस की बारीकियां समझ आती हैं और एक अन्य किरदार जोकि शीराज़ जमशेदजी का है जिनके यहां मालती की माँ काम करती है, समाज के उस वर्ग के लोग हैं जो शायद मददगार साबित होने की हर संभव कोशिश करते हैं पर अपराधबोध और जागरूकता दोनों के ही दबाव में वे ऐसा कर रहे होते हैं, एक लाइन के बाद शायद वे भी सिस्टम में ट्रैप्ड होते हैं। कहने का अर्थ यह है कि सभी किरदार सरल, सपाट नहीं हैं, उनकी अपनी त्रुटियाँ हैं। वे बहुआयामी हैं, इसीलिए सच्चे हैं और यथार्थ से मेल खाते हैं। ये इस लेखन की खूबी है।

एक और बात जो विचारवाद और यथार्थ के बीच का अहम चित्रण है -- सभी पुरुष किरदारों के दृश्य। कैसे बिना मालती की कहानी को भटकाए या उस पर हावी हुए हम इन किरदारों के माध्यम से पुरुष मनोवृत्ति की अलग-अलग झलक देख पाते हैं। जैसे कि एक दृश्य में हम देखते हैं कि मालती की वकील अर्चना अपनी सहकर्मी के साथ केस पर विचार कर रही होती है और जब उसकी बेटी अपने बाल बनाने को लेकर उसका ध्यान बंटाती है तो कैसे पति आनंद बेटी को दूसरी तरफ़ ले जाकर अपनी पत्नी और उसकी सहकर्मी को काम करने का स्पेस देता है। अव्वल तो यह एक छोटी-सी बात है पर फिर भी दर्शक की तरह मेरे मन में रह जाती है। शायद इसलिए कि मैंने अपनी माँ को हमें संभालते, ऑफिस के कार्य करते और घर के कार्य करते पाया है और पिता को सिर्फ़ ऑफिस के, जब तक कि वे दफ़्तर से रिटायर नहीं हुए। शायद आगे की पीढ़ी को यह अचंभित न करे क्योंकि इन मुद्दों पर अब बातचीत होने लगी है पर मेरी पीढ़ी तक पुरुष को घर का "अर्थ" सँभालते और महिला को घर और फिर धीरे-धीरे सब कुछ सँभालते देखा गया है। यह बात और है कि अपवाद सब जगह होते हैं। ख़ैर, फ़िल्म पर आएं तो इस तरह के काफ़ी मोमेंट्स देखने को मिलते हैं जिनमे जेंडर पॉलिटिक्स कह लें या इक्वालिटी जिसकी हम चाह रखते हैं, उसके भिन्न प्रारूप बाक़ायदा देखने को मिलते हैं।

फ़िल्म के कुछ संवाद भी आपको सोचने पर मजबूर करते हैं और शायद फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी हमारे साथ रह जाते हैं, जैसे कि "नाक नहीं हैं, कान नहीं हैं झुमके कहाँ लटकाऊँगी!" यह सुनने के बाद मुझे महसूस हुआ कि सिर्फ क्षणिक दर्द या सर्जरी तक का दर्द नहीं है, यह उम्र-भर का दर्द है जो एसिड फेंकने वाला तो क्या ही सोचता होगा, हम भी नहीं सोचते थे। फ़िल्म मनोस्थिति और दर्द से गुज़रने वाली मनोस्थिति पर भी बात करती है। एक और संवाद है -- "कितना अच्छा होता अगर एसिड बिकता ही नहीं... मिलता ही नहीं तो... फिंकता भी नहीं।" इसे सुनने के बाद हम सब सोचने को मजबूर होंगे और आगे फ़िल्म में इस एसिड की बिक्री को लेकर काफ़ी बात होती है जिससे हमें समझ में आता है कि इसके बंद होने की ज़रूरत क्यों है; केवल इसका नियंत्रण काफ़ी क्यों नहीं; इसके लिए लड़ने वाली संस्थाओं या ग्रुप्स को हम आज तक गंभीरता से क्यों नहीं ले पाए। एक और बहुत खूबसूरत संवाद है, "उन्होंने मेरी सूरत बदली है... मेरा मन नहीं।" यह उस विजयी क्षण में बोला गया जब मालती पहली बार अपने खोये आत्मविश्वास को वापिस पाती है। 

फ़िल्ममेकिंग की अगर बात करें तो मेघना गुलज़ार ने इससे पहले फ़िल्म तलवार और राज़ी को जिस तरह का निर्देशन दिया, यह फ़िल्म उनके मुक़ाबले थोड़ी अलग लगी। यह फ़िल्म शायद यथार्थ के करीब रहने और मुद्दे से न भटकने की एक कोशिश बन जाती है। इसी कारण अंत में ऐसा लगता है कि सब कुछ पूरा तो होता है, फिर चाहे एसिड विक्टिम्स या (जैसा कि फ़िल्म देखने के बाद कहना चाहूंगी) एसिड वारियर्स की लड़ाई हो या सभी चरित्रों का जो एक वृत्त बनता है, वह हो। बीच में फ़िल्म अमोल और मालती के साथ कहीं खोने लगती है पर बहुत जल्द अपने असली मोड़ पर लौट आती है। ख़ैर, ऐसा लग रहा है मानो फ़िल्म पर बात करते-करते मैं समीक्षा करने लगी और इसी से तो मैं बचना चाह रही थी पर बचना मुश्किल है क्योंकि कुछ बातें उल्लेखनीय हैं तो सांझा करनी ही होंगी ।

फ़िल्म में मुख्य किरदार निभाने वाले एक्टर्स जो प्रसिद्ध हैं ही, अपनी-अपनी भूमिका में बहुत सटीक थे। बाकी सभी चरित्रों ने भी अपनी भूमिका ठीकठाक निभाई पर लेख के अंत तक पहुँचने से पहले मैं यहां बब्बू जोकि अपराधी लड़के का किरदार है, उसे निभाने वाले विशाल दहिया के लुक एवं स्टान्स की दाद दूँगी। उन्होंने बहुत लिमिटेड स्क्रीन टाइम में खुद हमारे अंदर किरदार के प्रति जितनी घृणा पैदा करनी थी, वह की। साथ ही मैं अमोल के दोस्त के किरदार में रहे देवास दीक्षित को भी इस फ़िल्म के लिए शुभमकनाएं दूँगी। ये नए और युवा एक्टर्स एक ऊर्जावान टैलेंट से भरपूर हैं और इन दोनों ने अपने-अपने रोल में रहते हुए अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया। अपने फ़ील्ड में आमतौर पर एक्टर्स के साथ काम कर के मैंने यह महसूस किया है कि कम स्क्रीन टाइम में भी अपनी परफॉर्मेंस बखूबी निभा देना सबके बस की बात नहीं। पर यहां इन दोनों के अलावा अर्चना के पति की भूमिका में आनंद तिवारी ने भी अपना किरदार बड़ी सरलता से निभाया है।

यह फ़िल्म बहुत अच्छी, बुरी, कम अच्छी, देखने लायक है या नहीं से परे है और फिर फ़िल्म तो एक ऐसा क्राफ़्ट है जो बन जाने के बाद जितनी बार जितने लोगों द्वारा देखी जाए, और ज़्यादा आर्ट साबित होती जाती है। यह फ़िल्म काफ़ी साहसी है क्योंकि यह एसिड विक्टिम्स या वारियर्स की त्रासदी नहीं है बल्कि उनकी लड़ाई है और इसीलिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। जिस दौरान यह रिलीज़ हुई, उस दौरान देश में स्टूडेंट्स के ख़िलाफ़ हुई हिंसा को लेकर एक जानीमानी यूनिवर्सिटी जे एन यू में विरोध-प्रदर्शन चल रहा था बल्कि देश-भर में ये प्रदर्शन शांतिपूर्वक किए जा रहे थे। मालती का किरदार निभाने वाली और इस फ़िल्म की प्रोड्यूसर दीपिका ने छात्रों के समर्थन में जे एन यू जा कर समर्थन दिया जिसके लिए काफ़ी संख्या में लोगों ने उनकी इस फ़िल्म को बॉयकॉट करने की भी ठानी। देश में किसी सेलिब्रिटी के लिए अपना स्टैंड व्यक्त करना समीक्षा से ज़्यादा मत-अभिमत का मुद्दा बन जाता है। कोई इसके परिणाम की फ़िक्र किये बिना यदि ऐसा कर ले तो वह हिम्मतेक़ाबिल भी कहलाता है जोकि अपने आप में एक हास्यास्पद स्थिति है। ख़ैर, दीपिका ने यह सिद्ध किया कि जो क़िरदार वह फ़िल्म में निभा रहीं हैं, उसके मनोभाव से वह पूरी तरह न्याय करती हैं, आखिर वह किरदार भी एक योद्धा का है जो बिना डरे अपने अस्तित्व और खुल के जीने के हक़ की लड़ाई लड़ने का मत रखती है पूरी दुनिया के सामने।

शायद कुछ फ़िल्में अपनी संरचना से ज़्यादा विषय, अंतर्निहित विचारों और उससे जुड़े लोगों की वजह से महत्त्वपूर्ण होती हैं। ऐसी फ़िल्में बनना और दर्शकों तक पहुँचना और भी ज़रूरी हो जाता है।

-- दीप्ति खुराना

सतत (टिकाऊ) विकास की चुनौतियाँ एवं कुछ समाधान

सतत (टिकाऊ) विकास की चुनौतियाँ एवं कुछ समाधान
  

कोविड -19, यानी कोरोना महामारी, के फैलने के बाद लॉकडाउन ने सारी  दुनिया की अर्थव्यवस्था को एक बार अस्त-व्यस्त कर दिया है। अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाना एक बहुत बड़ी चुनौती रहेगी। भारत में लॉकडाउन की घोषणा 24 मार्च 2020 को रात को 8 बजे टेलिविज़न पर एक प्रसारण में प्रधानमंत्री ने केवल चार घंटे का नोटिस दे कर की। भारत का लॉकडाउन सब से लम्बे समय (68 दिन) के लिए और सारी अर्थव्यवस्था पर लागू किया गया था। इसलिए भारत की अर्थव्यवस्था एकदम ठप्प पड़ गई और बहुत गहरे ढंग से प्रभावित हुई। भारत की अर्थव्यवस्था पहले ही 2016 के विमुद्रीकरण और जी. एस. टी. के लागू करने से लड़खड़ाई हुई थी। इसे संभलने में काफ़ी समय लगेगा। आगे का कुछ समय विशेषकर गरीब लोगों और निम्न मध्यम वर्ग के लिए के काफ़ी कष्टमय और चुनौतीपूर्ण  होगा। लॉकडाउन के दौरान होने वाले कष्टों से, विशेषकर प्रवासी मज़दूरों की त्रासदी से, तो सभी लोग भली भाँति परिचित ही हैं। 

कोविड -19 और लॉकडाउन के अनुभव से कुछ तात्कालिक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं :

1.कोविड -19 ने दिखा दिया है कि विज्ञान की खोजों की भी कुछ सीमाएं हैं। विज्ञान की खोजें प्रकृति की चुनौतियों के मुकाबले अपर्याप्त ही रहेंगी। प्रकृति के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए क्योंकि उससे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों का शायद हम मुकाबला न कर पाएं। यदि प्रकृति से अधिक छेड़छाड़ करेंगे तो को उसके भयंकर और दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर ही  रहना होगा। 

2.मनुष्य, समाज और प्रकृति  में गहन सम्बन्ध है। प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर के कोई देश या कोई व्यक्ति अकेले में सुरक्षित नहीं रह सकता। एक देश के लोगों की सुरक्षा दूसरे देश के लोगों की सुरक्षा से भी जुड़ी हुई है। कोविड-19 महामारी ने दिखा दिया है कि यदि ऐसी आपदा एक देश में आती है तो दूसरे देश इससे अछूते नहीं रह सकते। 

3.लोगों के स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को बाज़ार पर  या निजी डॉक्टरों पर नहीं छोड़ा जा सकता। स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएं उपलब्ध करवाना समाज की ज़िम्मेदारी है और सरकार को इस ज़िम्मेदारी को निभाना होगा। 

4.विपत्ति में लोगों के खाने और रोज़गार का प्रबंध सरकार को करना होगा। इसे भी केवल बाज़ार पर ही  नहीं छोड़ा जा सकता।

5.संकट की घड़ी में खाद्य पदार्थों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। इसके लिए हर देश को आत्मनिर्भर बनना पड़ेगा, नहीं तो संकट और अधिक विकराल रूप धारण कर लेगा और स्थिति को संभालना कठिन हो जाएगा। 

कोविड -19 महामारी ने सभी देशों की सरकारों को मजबूर कर दिया है कि वे अपने देश की विकास प्रक्रिया  का एक बार फिर से अवलोकन करें । सारी दुनिया के बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री इस बहस में लगे हुए हैं कि आगे की क्या रणनीति हो कि इस प्रकार की विपदा का कम से कम तकलीफों  के साथ सामना कर सकें। विकास प्रक्रिया सतत, यानी टिकाऊ, होनी चाहिए ताकि पृथ्वी पर जीवन प्रक्रिया स्वास्थ्यवर्धक हो और सामाजिक जीवन सभी के लिए सुखमय हो सके । 
सतत (टिकाऊ) विकास प्रक्रिया के तीन  मुख्य पहलू हैं :

(1) विकास प्रक्रिया ऐसी हो जो समाज के सभी लोगों को लाभ पहुंचाए। यदि विकास प्रक्रिया ऐसी होगी जो कुछ लोगों को अमीर बनाए और कुछ को गरीब रखे, और ये फ़ासला बढ़ता ही जाए तो ऐसी आर्थिक विकास प्रक्रिया सामाजिक रूप से टिकाऊ नहीं हो सकती। ऐसी अर्थव्यवस्था में  लोगों में अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष चलता रहेगा। ऐसे विकास को किसी भी नैतिकता के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता।

(2) यह ठीक है की प्राकृतिक साधनों के उपयोग के बिना मनुष्य किसी वस्तु का उत्पादन नहीं कर सकता लेकिन प्रकृति का दोहन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि प्रकृति इसकी भरपाई फिर से कर सके। यदि हम प्रकृति के पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ देंगे तो प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और खतरा है कि पर्यावरण का संतुलन इतना न बिगड़ जाए कि धरती पर रहना ही कठिन हो जाए। ध्यान रहे कि हमारे पूर्वज प्रकृति की शक्तियों की पूजा किया करते थे। यद्यपि बहुत सी ऐसी क्रियाएं अब कर्मकांड में ही सिकुड़ कर रह गई हैं !  

(3) विकास प्रक्रिया सतत बनी रहे और उसमें अधिक उतार-चढ़ाव न आएं क्योंकि उससे अर्थव्यवस्था में अस्थिरता आ जाती है।   
 
आज दुनिया में आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी धारणा सब से प्रमुख है। दुनिया की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से इसी धारणा पर आधारित है। पहले हम संक्षेप में इस अवधारणा के विभिन्न अंगों का अवलोकन करेंगे और फिर इस व्यवस्था के दुनिया में ऐतिहासिक अनुभवों पर प्रकाश डालेंगे ताकि उनसे उपयुक्त निष्कर्ष निकल सकें और आगे की विकास प्रक्रिया को समाज के लिए और अधिक लाभकारी बना सकें। 

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इस मान्यता पर आधारित है कि  यदि हर व्यक्ति अपने निजी हित और निजी कल्याण को समक्ष रख कर उत्पादन करे तो (i) बाज़ार अपने आप आर्थिक संसाधनों का कुशलतापूर्वक सदुपयोग सुनिश्चित कर देता है; (ii) उत्पादन के साधनों को उनके उत्पादन में योगदान के अनुसार मूल्य मिलता है; और (iii) यह अर्थव्यवस्था देश के उत्पादन को अत्यधिक स्तर पर ले जाएगी,  जिससे समाज के सभी लोगों का कल्याण अधिकतम हो जाता है। तो सरकार को अर्थव्यवस्था में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए और ज्यादातर फैसले बाजार पर छोड़ देने चाहिए। आम भाषा में कहें तो पूंजीपतियों को पूरी छूट होनी चाहिए कि क्या उत्पादन करें और कितनी मजदूरी दें। बाजार तय करेगा कि क्या पैदा करना है, कैसे पैदा करना है और किसके लिए पैदा करना है। वास्तव में यह अर्थशास्त्र  का सबसे प्रमुख प्रश्न है। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति अपनी पूंजी से मशीनें और कच्चा माल खरीदते हैं और मज़दूरों की सहायता से वस्तुओं का उत्पादन करते हैं और उन वस्तुओं को बाज़ार में बेच कर मुनाफ़ा कमाते हैं। इस मुनाफ़े से और उत्पादन करते हैं। मुनाफ़ा कमाना उत्पादन करने का मुख्य उद्देश्य है।  

इस पूंजीवादी व्यवस्था के आधार पर दुनिया में  कैसा विकास हुआ, अब हम इस पर अपनी दृष्टि डालेंगे। यूरोप में उद्योगों का तेज़ी से विकास लगभग 400 साल पहले शुरू हो गया था। विज्ञान और टेक्नोलॉजी में भी बहुत विकास हुआ जिससे इंग्लैंड में सब से पहले औद्योगिक क्रांति हुई और बाद में फ्रांस और स्पेन में। सचमुच, यूरोप में औद्योगीकरण बहुत तेज़ गति से हुआ। यद्यपि मेहनतकश जनता को विस्थापन प्रक्रिया में काफ़ी कष्ट उठाने पड़े और सरकार को भी हस्तक्षेप करना पड़ा। इन देशों के आम लोगों को भी काफ़ी आर्थिक लाभ मिला। परन्तु इस विकास प्रक्रिया के फलस्वरूप, विशेषकर इंग्लैंड, फ्रांस और स्पेन ने सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था  पर अपना प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे एशिया और अफ्रीका के देशों को अपना उपनिवेश (कॉलोनीज़) बना लिया। फिर यूरोप से लोगों का माइग्रेशन करके अमेरिका महाद्वीप ( उत्तर अमेरिका : यू.एस.ए. एवं कनाडा, और दक्षिण अमेरिका यानी मैक्सिको, अर्जेंटीना, ब्राज़ील इत्यादि), ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में पूर्ण रूप से अपना कब्ज़ा जमा लिया और वहां के मूल लोगों का लगभग पूर्ण रूप से सफ़ाया कर दिया। यूरोप के प्रमुख देशों, विशेष कर ब्रिटेन, ने एशिया में भारत को और अफ्रीका के अनेक देशों को अपने  उपनिवेश (कॉलोनीज़) बना कर, इन के लोगों का खूब शोषण किया और प्राकृतिक संसाधनों का खूब दोहन किया। इन देशों के उद्योगों को नष्ट कर दिया और इन्हें अपने उद्योगों की मंडी बना दिया।              

दुनिया में  पूंजीवादी विकास के  इतिहास से हम निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं :  

1. पूंजीवादी व्यवस्था ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को जन्म दिया और सारी दुनिया में लूटखसोट का साम्राज्य स्थापित किया।
  
2. पूंजीवादी देशों में कॉलोनीज़ के बंटवारे  को ले कर  बीसवीं शताब्दी में दो विश्व युद्ध हुए जिसमें करोड़ों लोगों की जान गई। 

3. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकट-ग्रस्त आर्थिक व्यवस्था ही रही है, इसमें उत्पादन का उतार-चढ़ाव (ट्रेड साइकल्स) बना रहता है। 1930 के दशक में एक भारी डिप्रेशन (मंदी) का दौर आया, जिसने एक बार दुनिया की अर्थव्यवस्था को छिन-भिन्न कर दिया। 
    
4. यह झूठ सिद्ध हुआ कि पूंजीवाद, उत्पादन के साधनों का निपुणतापूर्वक उपयोग करता है और उत्पादन के साधनों को उत्पादन में उनके योगदान के बराबर भुगतान करता है। मज़दूरों की मज़दूरी केवल गुज़ारे  के स्तर पर ही बनी रहती है। इस व्यवस्था में बेरोज़गारी बनी रहती है और  बढ़ती जाती है। वास्तव में इस व्यवस्था में मेहनतकशों का खूब शोषण होता है।  इस व्यवस्था में अमीर, अमीर  होता जाता है और गरीब, गरीब  होता जाता है।    

5. पूंजीवाद की सब से बड़ी आलोचना यह है कि  इस व्यवस्था ने काम करने वाले लोगों को, यानी कि इंसानों को और प्रकृति, यानी प्राकृतिक संसाधनों, को बाज़ार  में बिकने वाली वस्तुएं या माल बना दिया।  इसे इंसान की इन्सानियत नष्ट हो गई और लोगों का बहुत शोषण हुआ है। प्रकृति को भी नष्ट कर रहे हैं जिससे पर्यावरण दूषित हो गया है और अगर अभी नहीं सम्भले तो पृथ्वी पर जीवन भी नष्ट हो जाएगा।    

इसलिए यदि हम इसे एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था बनाना चाहते हैं तो ऐसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकल्प ढूंढना ही पड़ेगा। 

समाजवादी अर्थव्यवस्था का अनुभव :

पूंजीवाद के विकल्प के रूप में, बीसवीं शताब्दी के शुरू में, सोवियत संघ में 1917 में समाजवादी क्रांति हुई। सोवियत संघ ने पूंजीवादी व्यवस्था से नाता तोड़ कर समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना की, जिसमें उत्पादन के साधनों का समाजीकरण किया गया और मंडी के स्थान पर योजनाबद्ध तरीके से विकास किया गया जिसमें रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा सम्बन्धी सभी सुविधाएं देना सरकार की ज़िम्मेदारी थी। देश का औद्योगीकरण बहुत तेज़ी से हुआ। पूंजीवादी देशों के मुकाबले में पर्यावरण की समस्या बहुत कम रही।  दूसरे देशों को उपनिवेश बनाए बिना आर्थिक विकास कैसे किया जा सकता है, समाजवादी व्यवस्था इसका एक जीवंत उदाहरण है। पोलैंड, यूगोस्लाविया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, रोमानिया आदि देशों में बाज़ार पर आधारित समाजवादी व्यवस्था स्थापित हुई। बाद में चीन ने भी समाजवादी व्यवस्था अपना कर  अपना विकास बहुत तेज़ी से किया। क्यूबा, उत्तरी कोरिया, वियतनाम आदि देशों में भी समाजवादी व्यवस्था स्थापित हुई। कुछ आंतरिक अंतर्विरोधों के कारण और पूंजीवादी देशों के लगातार षड्यंत्रों और लगातार अनेक प्रकार के हमलों के कारण इन देशों में समाजवादी व्यवस्था स्थाई नहीं हो पाई और और इन देशों में समाजवादी व्यवस्था  का विघटन हो गया।  लेकिन समाजवादी विकास प्रक्रिया ने दिखा दिया कि पूंजीवादी शोषण के बिना विकास कैसे किया जा सकता है। समाजवाद को एक झटका तो लगा है पर समाजवाद का विचार तब तक जीवित रहेगा जब तक दुनिया में शोषण की प्रक्रिया जारी रहेगी। 
    
भारत में विकास प्रक्रिया : 

अँग्रेज़ों और यूरोप के दूसरे देशों से विशेषकर फ्रांसीसी और डच, भारत में लगभग 1600 ईस्वी में व्यापार के लिए आए। उस समय भारत राजनीतिक रूप से छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था और उन पर अनेक हिन्दू और मुसलमान राजा राज करते थे। मुग़लों का सब से बड़ा राज्य था जो देश के बड़े हिस्से पर राज करते थे।  जहाँ  तक अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध है, हिन्दू और मुस्लिम राजाओं में कोई विशेष अंतर नहीं था।  सभी सामंतवादी शोषण करते थे। फिर भी विकास की दृष्टि से भारत एक अग्रणी देश था। उस समय भारत का दुनिया के व्यापार में बहुत बड़ा हिस्सा था, लगभग 25% से 30% तक। अँग्रेज़ (ईस्ट इंडिया कंपनी) और यूरोप के व्यापारीे सोना और चाँदी ला कर भारत से वस्तुएं ख़रीद कर और यूरोप में बेच कर मुनाफ़ा कमाते थे। भारत की आंतरिक कमज़ोरियों का अनुचित लाभ उठा कर, 1757 के प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को हरा कर अँग्रेज़ों ने बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया और भूमि कर कई गुणा बढ़ा कर किसानों का शोषण किया। धीरे-धीरे अँग्रेज़ों ने लगभग सारे भारत पर अपना कब्ज़ा जमा लिया और 1857 की लड़ाई के बाद ब्रिटिश सरकार ने सीधे रूप से भारत पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। इसके बाद और अधिक आर्थिक लूट की। भारत के सभी उद्योगों को नष्ट कर दिया और अपने देश में पक्का माल बना कर भारत में बेचना शुरू किया। भारत से कच्चा माल आयात करते थे और पक्का माल भारत में बेच कर खूब मुनाफ़ा कमाते थे। अर्थशास्त्री कहते हैं कि इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति और भारत के उद्योग को नष्ट करना एक समकालीन, व्यवस्थित रूप से जुड़ी हुई प्रक्रिया थी, यानी इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति की कीमत भारत ने चुकाई। अँग्रेज़ों ने भारत पर लगभग 200 साल राज किया और देश के प्राकृतिक साधनों और जनता को खूब लूटा। इसलिए 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो भारत सुई से ले कर हवाई जहाज़ तक, लगभग सभी औद्योगिक वस्तुओं का ब्रिटेन से आयात करता था। ऐसी स्थिति में देश को विकसित करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी।  
 
भारत की आज़ादी के बाद की विकास प्रक्रिया : 

भारत की आज़ादी के संघर्ष में देश के राष्ट्रीय नेतृत्व और आम लोगों ने आज़ादी के बाद विकास के सुनहरे सपने संजोए थे कि वे अपनी आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से सदा के लिए निजात पा लेंगे। इन सपनों को पूरा करने के लिए प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने योजनाबद्ध तरीके से विकास और समाजवादी नमूने पर समाज की संरचना की परिकल्पना की। जवाहर लाल नेहरू पश्चिम की लोकतांत्रिक व्यवस्था, समाजवाद की परिकल्पना और  सोवियत संघ के योजनाबद्ध आर्थिक विकास से काफी प्रभावित थे। इन तीनों के सम्मिश्रण पर आधारित प्रजातांत्रिक  राज्य की स्थापना और मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता चुना। लोग सरकार का चुनाव लोकतांत्रिक ढंग से वोटों के द्वारा हर पांच वर्ष के लिए करेंगे। अर्थव्यवस्था की चाबी सार्वजनिक क्षेत्र में मूलभूत और भारी उद्योगों को स्थापित कर के सरकार के हाथों में रहेगी और लोगों के उपभोग की वस्तुओं का निर्माण निजी उद्योगपतिओं के हाथों में होगा पर उनको उद्योग लगाने के लिए लाइसेंस सरकार से लेना होगा ताकि निवेश प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में हो और आर्थिक शक्ति कुछ हाथों में केंद्रित न हो पाए। गांवों और कृषि के समग्र विकास के लिए कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की परिकल्पना की गई। 

इस समझ के अनुरूप 1951 से पहली पंचवर्षीय  योजना को लागू किया गया और मूलभूत उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित किया गया। दूसरी पंचवर्षीय योजना में निम्नलिखित उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित किया गया : (1) लोहे और स्टील की कंपनियां भिलाई, राउरकेला, बोकारो और दुर्गापुर में;   (2) कोयले की खदानों का विकास; (3) बिजली की मशीनें बनाने के लिए भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड (बी.एच.ई.एल); (4) हवाई जहाज़ बनाने के लिए हिंदुस्तान एयरोनॉटिकल लिमिटेड;  (5) सीमेंट की  फैक्ट्रियां;  (6) पेट्रोलियम के कुंओं का विकास; (7) बहुआयामी हाइड्रो डैम और टेलीकॉम, बिजली, रेलवे, सड़कों इत्यादि का विकास।  इस सब से भारत के मूलभूत औद्योगिक ढांचे का अभूतपूर्ण विकास हुआ। 
 
कृषि विकास रास्ता :

कृषि के विकास के लिए 1950 मे ज़मींदारी प्रथा को खत्म करने का कानून बना कर लागू किया गया और मुज़ारों के अधिकार सुरक्षित करने के लिए टेनेंसी एक्ट बनाए और  लागू किए गए। समझ यह थी कि अगर भूमि सम्बंधों में सुधार हो जाए और खेती पर किसान (काश्तकार) के अधिकार सुरक्षित हों तो कृषि विकास का रास्ता अपने आप खुल जाएगा। लेकिन सरकार पर और गांवों में सामंतवादी लोगों का वर्चस्व था और वोट बैंक की राजनीति के कारण भूमि सुधार एक सीमा के बाद सफल नहीं हो पाए। 1960 के दशक में मानसून फेल होने के कारण खाद्यान्नों की भारी कमी हो गई। दूसरे विकल्पों को छोड़ कर सरकार ने कृषि में सघन खेती का पूंजीवादी विकास का रास्ता अपनाया जिसे ‘हरित क्रांति’ के नाम से जाना जाता है। सघन खेती से कृषि का उत्पादन बहुत बढ़ा और देश खाद्यान्नों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया। लेकिन कृषि का उद्देश्य, मुनाफ़े के लिए उत्पादन करना हो गया जिसके लिए खेती में उपयोग की जाने वाली धरती का खूब दोहन किया गया। ज़रूरत से अधिक रसायनिक खादों और पेस्टीसाइड्स के उपयोग से धरती के उपजाऊपन/उर्वरता में कमी आई और अनाज में रसायनों की मात्रा अधिक होने के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ रहा है। सिंचाई के लिए धरती के नीचे से ट्यूबवेल के द्वारा पानी का निकाल, रीचार्ज की क्षमता से अधिक होने के कारण धरती के नीचे पानी का स्तर बहुत नीचे चला गया है और पानी सदा के लिए खारा होता जा रहा है और खतरा है कि पानी दोबारा मीठा नहीं बन सकेगा। इस से भूमि के बंजर होने का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। यह सब टिकाऊ खेती का रास्ता नहीं है। कृषि विकास का रास्ता  बदलना होगा और ऑर्गेनिक खेती को प्रोत्साहित करना होगा। 

औद्योगिक विकास का रास्ता :

जैसा कि पहले कहा गया है, मूलभूत उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित किया गया। खाद्य वस्तुओं का उत्पादन निजी (प्राइवेट) क्षेत्र के हवाले कर दिया गया। निजी क्षेत्र में उद्योगों को लाइसेंस की नीति से विनियमित किया गया ताकि उद्योगों में एकाधिकार का विकास न हो और कोई बड़ा उद्योगपति उपभोक्ताओं को अनुचित ढंग से अधिक कीमत वसूल कर शोषित न कर  सके, इसके लिए कानून (MRTP Act) लागू किया गया। इस तरह की औद्योगिक नीतियां 1951 से 1980 तक लागू  रहीं। 

औद्योगिक नीति  प्रभावशाली ढंग से लागू  नहीं हो पाई। देश और विदेश के पूंजीपतियो ने आर्थिक मूलभूत  ढांचे का विकास तो सरकार से करवाया पर लाइसेंसिंग नीति को असफल बनाने के लिए सभी हथकंडे अपनाए। अफसरशाही भी खूब भ्रष्टाचार में लिप्त हो गई।  पूँजीपतियों ने  राजनीतिज्ञों को  अपने वश में कर के खूब फायदे उठाए। इस सब से कोटा-परमिट राज की स्थापना हो गई जिसमें भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया। आम जनता को भी अफ़सरशाही के हाथों काफ़ी परेशान होना पड़ा। ऐसी स्थिति में पूँजीपतियों के दबाव से सरकार ने 1980 के दशक के शुरू से आर्थिक नीतियों में परिवर्तन करना शुरू किया और 1991 में तो पूरी तरह अर्थव्यवस्था को देश और  पूँजीपतियों के  हवाले कर दिया। देश के विकास की दर तो बहुत बढ़ गई परन्तु बेरोजगारी भी बढ़ गई पर अमीर और गरीब में फ़ासला बढ़ता गया। गरीबी रेखा से नीचे लोगों की संख्या 50% से अधिक है और अब तो भुखमरी भी बढ़ती जा रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं निजी हाथों में सौंपने के कारण इतनी महंगी हो गई हैं कि आम व्यक्ति की क्षमता से बाहर  हैं। पर्यावरण की तो धज्जियाँ उड़ गई हैं। कुछ शहरों में  हवा तो इतनी दूषित हो गई  है कि  लोगों का रहना दूभर हो गया है। हवा, पानी, मिट्टी, खाद्यान्न, सब्ज़ी और फल इतने दूषित हो गए हैं कि स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गए हैं। 2016 से देश में आर्थिक संकट गहराता ही जा रहा है और अब तो कोरोना महामारी के बाद लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है!

भारत में टिकाऊ  विकास के लिए सबक : 

1.विस्थापन से विकास प्रक्रिया : 

बड़े डैम बनाने की नीति से,  कोयला खानों और दूसरे मिनरल्स की खानों और जंगलों से इमारती लकड़ी के बेरोक-टोक कटने से एक ओर तो पर्यावरण खतरे  में पड़  गया है और दूसरी ओर लोगों, विशेषकर जनजातियों के लोगों, के विस्थापन और रोज़ी-रोटी का भयंकर संकट खड़ा हो गया है, विस्थापित लोगों के पुनर्वास की कारगर नीति न होने के कारण कई प्रकार के आंदोलन खड़े हो गए हैं, जैसे कि नक्सल-बाड़ी आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन और चिपको आंदोलन इत्यादि।  इन आंदोलनो की मांगें वास्तविक हैं लेकिन सरकार और पूंजीपति ठेकेदार इन समस्याओं पर उचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। हमें भविष्य में सतर्क रहना होगा कि इस प्रकार की गलतियां न दोहराएं।

2.प्राकृतिक संसाधनों को निजी व्यापारियों को बेचना :  

प्राकृतिक संसाधन सार्वजनिक क्षेत्र में समाज/सरकार के हाथों में ही सुरक्षित रह सकते हैं।  दूसरा, प्राकृतिक संसाधनों, जैसे कि कोयले की खानें, पेट्रोल के प्राकृतिक स्रोत, 2-G स्पैक्ट्रम आदि, का मूल्यांकन करना, यानी उनकी ठीक से कीमत निर्धारित करना, बहुत कठिन काम है। इसलिए इनको बेचने की प्रक्रिया में कई कांड हुए। पिछले अनुभव बताते हैं कि निजी व्यापारी प्राकृतिक  संसाधनों का मुनाफ़े के लालच में इतना दोहन कर लेते हैं कि उनका पुनः विकास नहीं किया जा सकता जिससे पर्यावरण में असंतुलन होने का खतरा बढ़ जाता है।  

3.भारत में 1991 से लागू की गई आर्थिक नीति के अनुसार अर्थव्यवस्था को देश और विदेश के पूँजीपतियों के हवाले कर दिया गया। इससे देश के उत्पादन में तेज़ गति से वृद्धि शुरू हो गई। पूंजीवादी व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन बाज़ार में मांग के अनुसार होता है और मांग केवल वही लोग करेंगे जिनके पास खरीदने की ताकत है। एक गरीब देश में पहले गरीब लोगों की बाज़ार से खरीदने की ताकत बढ़ानी होगी जो गरीब लोगों को  रोज़गार देकर आय बढ़ाने से बढ़ेगी। हम देश में क्या उत्पादन करते हैं और किसके लिए करते हैं, यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसलिए केवल आर्थिक  विकास दर और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, आर्थिक विकास का ठीक पैमाना नहीं हो सकते। देश का विकास तो तेज़ गति से हुआ पर उसका लाभ ऊपर के केवल 20-30% लोगों  को ही हुआ है, और नीचे के 50% लोगों को कोई विशेष  लाभ नहीं पहुंचा। देश के विकास में लोगों में आय की  असमानता कम होनी चाहिए, न कि बढ़नी चाहिए। लेकिन भारत में अमीर और गरीब में फ़ासला बढ़ता जा रहा है। रोज़गार का प्रबंध अपर्याप्त है और बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं  के बढ़ते निजीकरण के कारण, ये सेवाएं आम व्यक्ति की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं, जबकि इन बुनियादी सुविधाओं पर सब लोगों का अधिकार होना चाहिए।  ऐसी विकास प्रक्रिया सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं ठहराई जा सकती। 

4.भारत में खेती की विकास प्रक्रिया पर भी पुनः विचार की आवश्यकता है। मिट्टी की उत्पादकता कम होती जा रही है और रसायनिक खादों, कीटनाशक दवाइयों के अधिक छिड़काव से खाद्यान्न ज़हरीले  हो जाते हैं, जिससे नागरिकों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है ।     

आगे का रास्ता :    

1.कोविड-19 महामारी ने दुनिया और भारत के  विकास मॉडल का पर्दाफ़ाश कर इसकी कमियों को उजागर कर दिया है। पिछला अनुभव बताता है कि यदि देश के नागरिक सभी फ़ैसलों को सरकार और पूंजीपतियों पर छोड़ देंगे तो वे दोबारा विनाशकारी नीतियों को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए अपना लेंगे। शुद्ध पूंजीवादी व्यवस्था लोक हित में नहीं है। इसलिए इस व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन करना होगा। 

2.नागरिकों और प्राकृतिक संसाधनों को बाज़ार में बिकाऊ वस्तुएं न बनने दें। प्रकृति का इतना दोहन न होने दें कि पर्यावरण इतना दूषित हो जाए कि  पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाए।   

3.हम प्रकृति और जन-कल्याण को उनके अपने भाग्य पर नहीं छोड़ सकते कि पूंजीपति जितना चाहें इनका शोषण कर सकें। पूंजीवादी व्यवस्था एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था नहीं है।1930 की दुनिया में मंदी और 2008 से दुनिया में आर्थिक और वित्तीय संकट ने स्पष्ट कर दिया है कि अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार को पूरी ज़िम्मेदारी निभानी होगी। 

4.हमें वर्तमान आर्थिक नीतियों का पुनरावलोकन करना होगा और उन्हें जनहितकारी बनाना होगा। इसके लिए जागरूक नागरिकों की भूमिका अहम हो जाती है कि वे समस्याओं को उनके पूरे कद में समझें और समाज के स्वच्छ विकास के लिए  सरकार पर नकेल डाल कर रखें ताकि वह जन-कल्याण की नीतियों को अपनाए। यही समय की सब से बड़ी चुनौती है।


-- प्रोफ़ेसर सुरेंद्र कुमार,
भूतपूर्व अध्यक्ष, अर्थशास्त्र विभाग, 
महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक

*कोरोना काल और अंधविश्वास का खेल*


*कोरोना काल और अंधविश्वास का खेल*

जबरीमल्ल पारख

कोरोना वायरस एक महामारी है जो लोगों के बीच दैहिक संपर्क में आने से फैलती है। पिछले छह महीने से यह दुनिया के लगभग सभी देशों में फैल चुकी है, कहीं कम और कहीं ज़्यादा। चूंकि यह नया वायरस है, इसलिए अभी इसकी कोई निश्चित दवा और रोकथाम के लिए टीके की खोज नहीं हो पाई है। यह एक संक्रामक बीमारी है, लेकिन उतनी खतरनाक नहीं है जितनी प्लेग या हैज़ा। यह कैंसर, टीबी और डेंगू से भी अपेक्षाकृत कम खतरनाक है, जिनसे हर साल भारत में ही लाखों लोग मारे जाते हैं। लेकिन संक्रामक होने के कारण कोरोना का फैलाव बहुत तेज़ी से हुआ है। अभी तक का अनुभव यही बताता है कि संक्रमित होने वाले सौ लोगों में से लगभग 70-80 लोगों में इसके लक्षण प्रकट ही नहीं होते और जिन 20-30% मरीज़ों में इसके लक्षण दिखते हैं, उनमें से भी गंभीर रूप से बीमार मरीज़ 10 से ज़्यादा नहीं होते और उनमें से 3 से 5 मरीज़ मर जाते हैं, खासतौर पर वे जो पहले से किसी अन्य बीमारी से गंभीर रूप से पीड़ित होते हैं। अगर सभी मरीज़ों को समय पर इलाज मिल जाता है, तो मरने वालों की संख्या और कम की जा सकती है। इस संबंध में जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात
है, वह यही कि यह एक बीमारी है और निश्चित दवा की खोज न हो पाने के बावजूद पहले से उपलब्ध दवाओं आदि के द्वारा मरीज़ों को बचाया जा रहा है। इसी तरह संक्रमण न हो, उसके लिए विज्ञान द्वारा बताए तरीकों का पालन करते हुए महामारी से बचा जा सकता है।

जब से कोरोना वायरस का प्रकोप हुआ है तब से कई तरह की भविष्यवाणियां और टोने-टोटके भी चल रहे हैं। इस महामारी ने "धर्म बनाम विज्ञान" को लेकर बहस भी छेड़ दी है। विज्ञान में यकीन करने वालों को धर्म और अंधविश्ववासों की आलोचना करने का एक ठोस कारण मिल गया है। यह और बात है कि धर्म में यकीन करने वालों की आस्था और (अंध)विश्वास में कोई कमी आई हो, या वे विचलित हुए हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता जबकि दुनिया भर में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च आदि या तो बदं हो गए हैं या सुनसान पड़े हैं। ईश्वर और धर्म में आस्था रखने वाले लोग भी कोरोना वायरस के डर से घर में दुबके बैठे हैं। लेकिन दूसरी ओर, टीवी चैनलों या व्हाट्सअप के माध्यम से कुछ ज्योतिषी तरह-तरह के दावे भी कर रहे हैं, तो कोरोना को भगाने के लिए जगह-जगह कई तरह के टोने-टोटके भी शुरू हो गए हैं।

एक ज्योतिषी ने दावा किया था कि इस तरह के वायरस का उल्लेख हज़ारों साल पहले लिखे गए ग्रंथ ‘नारद संहिता’ में है जिसके अनुसार यह इस साल (2020) के जनवरी से मार्च तक अपने चरम पर रहेगा और 25 मार्च के बाद इसका प्रकोप कम होता जाएगा और अप्रैल के मध्य तक जाते-जाते खत्म हो जाएगा। ज़ाहिर है कि ‘नारद संहिता’ के जिस श्लोक से इसे जोड़ा जा रहा है, वह ‘नारद संहिता’ में है भी या नहीं और अगर है तो इसका ठीक यही अर्थ है, इसकी न कोई जांच की गई है और न की जाएगी। इस तरह की भविष्यवाणियों का दिलचस्प पहलू यह है कि ऐसे दावे घटना घटित होने के बाद किए जाते हैं। आज तक ऐसी कोई भी भविष्यवाणी घटना घटित होने से पहले नहीं की गई और की गई तो वह पूरी तरह से मिथ्या साबित हुई। जब नेहरू जी प्रधानमंत्री थे, तब ज्योतिषियों ने यह फैलाया कि नौ ग्रह पहली बार एक ही पंक्ति में आ रहे हैं और इससे प्रलय आएगी और  दुनिया नष्ट हो जाएगी। नतीजा यह हुआ कि ग्रहों के प्रकोप से बचने के लिए जगह-जगह यज्ञ-हवन होने लगे। भजन-कीर्तन और व्रत-उपवास बढ़ गए। मंदिरों और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देने की रफ़्तार बढ़ गई। इस अफ़वाह से पैदा हुए डर को समाप्त करने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू को लोगों से अपील करनी पड़ी कि वे ऐसी बातों पर ध्यान न दें, ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है। लेकिन लोगों ने उन पर यकीन नहीं किया और प्रलय का इंतज़ार करते रहे। लेकिन जब बताई गई तारीख निकल गई और प्रलय तो दूर की बात है, हल्का सा भूकंप तक नहीं आया, तब ही लोगों ने माना कि हां वे प्रलय से बच गए हैं। साफ़ था कि भविष्यवाणी पूरी तरह से मिथ्या थी। लेकिन इसके बावजूद लोग इस तरह की
भविष्यवाणियों पर यकीन करना नहीं छोड़ते। इस बार भी जून-जुलाई में एक माह के अंदर तीन-तीन ग्रहण होने को ऐसी ही चमत्कारी घटना माना जा रहा है और इसे भी कोरोना महामारी से जोड़ा जा रहा है।

कोरोना वायरस के महामारी का रूप ले लेने के बाद से ही यह दावा किया जा रहा है कि इसकी भविष्यवाणी तो हज़ारों साल पहले हो गई थी। अगर ऐसा था तो पहले क्यों नहीं बता दिया गया ताकि दुनिया भले ही सचेत न होती, हिन्दुस्तान तो सचेत हो जाता और इस महामारी से बचने के उपाय समय रहते कर पाता। ‘नारद संहिता’ के आधार पर जो कहा जा रहा है, उसके लिए किसी ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान की ज़रूरत नहीं है और ज्योतिषियों ने भी मौसम के बदलाव संबंधी एक सामान्य ज्ञान का इस्तेमाल किया है और उसे ज्योतिष की भाषा में पेश कर लोगों को बरगलाने का काम किया है। इसे और भी विश्वसनीय और चमत्कारी बनाने के लिए ‘नारद संहिता’ का हवाला दिया गया है, ताकि धर्मभीरू 
हिन्दू जनता बिना कोई सवाल उठाए इसे सच मान ले। भविष्यवाणी का जो रूप गढ़ा गया है, वहां यह मानकर चला जा रहा है कि गर्मी के साथ वायरस का असर कम होगा ही, तो बाद में यह दावा किया जा सकेगा कि देखिए हमारी भविष्यवाणी सच निकली और इस तरह ज्योतिष का हमारा धंधा और ज़ोर-शोर से चल निकलेगा और अगर ऐसा नहीं हुआ तो जैसा ज़्यादातर भविष्यवाणियों के साथ होता है, लोग-बाग इस भविष्यवाणी को भी भूल जाएंगे और कोई आकर उनकी गर्दन नहीं पकड़ेगा कि उनके द्वारा की गई भविष्यवाणी झूठ क्यों निकली। विडंबना यह है कि यह वायरस 56° तापमान पर भी सक्रिय रह सकता है।

इस तरह की भविष्यवाणियों में ज्योतिषी की अपनी लोकप्रियता भी लोगों को गुमराह करने में भूमिका निभाती है। प्रख्यात ज्योतिषविद बेजान दारूवाला ने भी नक्षत्रों की गणना करके दावा किया कि कोरोना का प्रकोप 21 मई तक समाप्त हो जाएगा। 21 मई आई और चली भी गई, लेकिन कोरोना न तो समाप्त हुआ और न ही इसका प्रकोप कम हुआ, बल्कि और बढ़ गया। बेजान दारूवाला जिस शहर अहमदाबाद में रहते थे, वह शहर कोरोना की भयंकर चपेट में आ गया था।अहमदाबाद में मरने वालों की संख्या किसी और शहर की तुलना में सबसे ज़्यादा थी। त्रासदी यह रही कि स्वयं बेजान दारूवाला भी इस महामारी की चपेट में आने से अपने को बचा न सके और 29 मई को उनकी मृत्यु हो गई। 

विडंबना यह है कि हमारा पूरा जीवन धार्मिक रीति-रिवाज़ों और रूढ़ियों से इतना जकड़ा हुआ है कि जन्म के पहले से लेकर मृत्यु के बाद तक उनसे मुक्ति नहीं मिलती। बच्चा पैदा होते ही सबसे पहले यह देखा जाता है कि वह किस घड़ी और किस क्षण में पैदा हुआ है। उस समय कौन से नक्षत्र कहां अवस्थित हैं। उसी के अनुसार जन्मपत्री बनाई जाती है और ज़िंदगी-भर वही जन्मपत्री ही उस बच्चे के जीवन से संबंधित फ़ैसलों का कारण बनती है। जब जन्म से ही विवेक से दुश्मनी का पाठ पढ़ाया जाता रहा हो, तो फिर चालाक लोगों के लिए उन्हें बरगलाना कोई मुश्किल काम नहीं है।

अप्रैल और मई तक कोरोना के समाप्त होने की भविष्यवाणी करने के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 21 दिन के लॉकडाउन लागू करने की भी भूमिका थी, जिसके बारे में स्वयं प्रधानमंत्री का दावा था कि कोरोना के विरुद्ध लड़ाई इन 21 दिनों में जीत ली जाएगी। इन भविष्यवाणियों का मकसद यह साबित करना भी था कि नरेंद्र मोदी महान भविष्यद्रष्टा, वैज्ञानिक और महामानव (और कुछ की नज़रों में अवतार) हैं। लॉकडाउन की पहली घोषणा 25 मार्च से 14 अप्रैल के लिए की गई थी। इसलिए यह दावा किया जाने लगा कि लॉकडाउन के दौरान वायरस का प्रकोप कम होने लगेगा और 14 अप्रैल तक यह महामारी समाप्त हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और प्रधानमंत्री को लॉकडाउन की अवधि तीन मई तक बढ़ानी पड़ी। अप्रैल का महीना भी समाप्त हो गया और महामारी के कम होने के कोई आसार दुनिया में कहीं भी नज़र नहीं आए। भारत में भी यह महामारी लगातार फैलती चली गई।

जब 22 मार्च को प्रधानमंत्री द्वारा जनता कर्फ़्यू लागू किया गया और उसी दिन शाम पांच बजे ताली-थाली बजाने का आह्वान किया गया, तो मोदी भक्तों ने यह प्रचारित किया कि इससे वायरस समाप्त हो जाएगा क्योंकि सामाजिक दूरी के कारण वायरस को फैलने के लिए संपर्क सूत्र नहीं मिलेगा और ताली-थाली की आवाज़ से जो ऊर्जा पैदा होगी उससे वायरस दुम दबाकर भाग खड़ा होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वायरस से संक्रमित रोगियों की संख्या बढ़ती गई। इसके बाद प्रधानमंत्री ने एक नया मंत्र दिया कि सारे भारतवासी पांच अप्रैल को रात नौ बजे सारी बत्तियां बंद करके नौ मिनट के लिए मोमबत्ती और दीये जलाएं। इसको लेकर यह दावा भी किया गया कि 22 मार्च के कर्फ़्यू से 95%
वायरस खत्म हो गए थे, लेकिन जो 5% रह गए थे, वे भी 5 अप्रैल को मोमबत्ती और दिया जलाने से जो ऊर्जा पैदा होगी उससे समाप्त हो जाएंगे। यह दावा करने वालों ने यह बताना ज़रूरी नहीं समझा कि उन्होंने यह कैसे जाना कि 95% वायरस खत्म हो गए हैं। कुछ ज्योतिषियों द्वारा यह दावा किया गया कि 9 की संख्या का खास महत्त्व है। 5 अप्रैल (पांचवीं तारीख़ + चौथा महीना) की संख्या भी 9 होती है, फिर 9 बजे और 9 मिनट में भी 9 की संख्या है। यह कहा गया कि ज्योतिष के अनुसार यह इतना विशिष्ट काल है कि उस अवधि में दीये और मोमबत्ती जलाने से जो शक्ति पैदा होगी, वह वायरस को खत्म कर देगी। प्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट के. के. अग्रवाल ने भी ‘योग वशिष्ठ’ का हवाला देकर सामूहिक चेतना पैदा होने से लोगों की रोग से लड़ने की क्षमता में वृद्धि होगी, ऐसा दावा किया। लेकिन 130 करोड़ लोगों द्वारा दीया जलाने से जिस ऊर्जा के पैदा होने का दावा किया गया, ऐसा दावा करने वाले भूल गए कि दिन में सूर्य की रोशनी में जितनी ऊर्जा और प्रकाश पैदा होता है, उतनी ऊर्जा 130 करोड़ ही नहीं, 130 अरब दीये एक साथ जलाने से भी पैदा नहीं हो सकती। अगर ऐसा होता तो वायरस तो दिन के समय खत्म हो जाना चाहिए था, जबकि आंकड़े बताते हैं कि जून के महीने में भी महामारी लगातार बढ़ती रही, जबकि दिन का तापमान 40-45° तक पहुंच चुका था। 

कोरोना वायरस से सम्बन्धित एक और दावा तुलसीदास की ‘रामचरित मानस’ के आधार पर किया जा रहा है। दावा यह है कि गोस्वामी तुलसीदास ने 400 साल पहले इस महामारी के फैलने की भविष्यवाणी कर दी थी। ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड के दोहा संख्या 120 और 121 और उनके बीच की चौपाइयों के आधार पर यह दावा किया गया है। इस दावे के अनुसार, “रामायण के दोहा नंबर 120 में लिखा है कि जब पृथ्वी पर निन्दा बढ़ जायेगी, तब चमगादड़ अवतरित होंगे और चारों ओर उनसे संबंधित बीमारी फैल जाएगी और लोग मरेंगे। दोहा नंबर 121 में लिखा है -- एक बीमारी जिसमें नर मरेंगे, उसकी सिर्फ़ एक दवा है प्रभु भजन, दान और समाधि में रहना यानी लॉकडाउन”। मानस की जिन चौपाइयों और दोहों का उपर्युक्त अर्थ निकाला गया है, वे निम्नलिखित हैं :

सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहिं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहि सब लोगा।।
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु  सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करही जो तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कटुलाई।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्ना उदरबुद्धि अति भारी। त्रिविधि ईषना तरुन तिजारी।।
जुग विधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहं लगि कहां कुरोग अनेका।।
एक व्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु व्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुं सो किमि लहै समाधि।। 121 (क)।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।। 121 (ख) ।।

‘रामचरितमानस’ के दोहे 120 और 121 से जो अर्थ निकाला गया है, दरअसल वह दोहा 120 के बाद 
की कुछ चौपाइयों और 121 के दो दोहों से निकाला गया है। इसके लिए चमगादड़ और समाधि शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। चमगादड़ को कोरोना वायरस और समाधि का अर्थ लॉकडाउन मान लिया गया है जो जानबूझकर फैलाया गया अनर्थ है। ‘नारद संहिता’ की तरह ‘रामचरितमानस’ कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है जो सामान्य नागरिकों के लिए अपरिचित हो। हां, यह अवश्य है कि ‘मानस’ का भक्तिभाव से पाठ करने वाले भी उसमें दिये गये अर्थ को समझकर उसका पाठ करते हों, इसकी संभावना कम ही है। वे तो यह मानकर चलते हैं कि  धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने और सुनने से ही उनको मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। उसको समझने की चेष्टा करनी भी नहीं चाहिए। इस मानसिकता का ही नतीजा है कि धार्मिक ग्रंथों का हवाला देकर लोगों को गुमराह करने का काम पहले पंडित लोग किया करते थे, आजकल राजनीतिक लाभ के लिए सांप्रदायिक और तत्त्ववादी लोग करते हैं। धर्मभीरू और अंधविश्वासी लोगों को आप सही अर्थ बताएंगे भी तो वे इसे नहीं मानेंगे। इसलिए उपर्युक्त चौपाइयों और दोहों का जो अर्थ गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित ‘मानस’ में दिया गया है, उसे उद्धृत करना ही उपयुक्त होगा।

*‘मानस’ के उपर्युक्त अंश का गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित ग्रंथ में दिया अनुवाद :*

“जो  मनुष्य सबकी निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं। सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ़ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है। यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ़) प्रीति कर लें (मिल जाएं), तो दुःखदायी सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है। ममता दाद है, ईर्ष्या (डाह) खुजली है,
हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गल कंठमाला या घेंघा रोग है), पराये सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है और मन की कुटिलता ही कोढ़ है। अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गांठ का) रोग है। दंभ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदरवृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएं प्रबल तिजारी हैं। मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहां तक कहूं”।

दोहों के अर्थ -- “एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करेॽ
“नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियां हैं, 
परंतु हे गरुड़ जी! उनसे ये रोग नहीं जाते”।

स्पष्ट है कि मानस के जिस अंश में कोरोना वायरस को खोज लिया गया, वह जनता के अज्ञान और अन्धविश्वास का लाभ उठाकर उस पर जबरन थोपे गये अर्थ का परिणाम है, जिसका दूर-दूर तक तुलसीदास की लिखी पंक्तियों से कोई संबंध नहीं है। दरअसल बीमारियों से जो रूपक बनाया है, उसका संबंध मनुष्य के उन मनोभावों से है, जिन्हें धार्मिक और नैतिक दृष्टि से मनुष्य की कमज़ोरियां माना जाता रहा है। तुलसीदास एक ब्राह्मणवादी भक्त कवि थे और अपनी मान्यताओं के अनुसार उन्होंने जो ठीक समझा, लिखा। वे न ज्योतिष थे और न ही भविष्यद्रष्टा। उनके लिखे ग्रंथों के मनमाने 
अर्थ निकालने वाले तुलसीदास के लेखन का अपने राजनीतिक हित में इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि
उन्हें मालूम है कि इससे राम और तुलसीदास में आस्था रखने वालों को आसानी से बेवकूफ़ बनाया जा सकता है। और उनकी इसी अंध आस्था का इस्तेमाल उनमें सांप्रदायिक नफ़रत और घृणा भरने के लिए भी किया जा सकता है। जैसा कि हम देख रहे हैं कि इस तरह की बातों में यकीन करने वाले ही यह सहज ही मान लेते हैं कि भारत में कोरोना मुसलमानों के द्वारा फैल रहा है। इसके बाद उनके  विरुद्ध हिंसा उकसाना कोई मुश्किल काम नहीं है।

चार चरणों के (68 दिन के) लॉकडाउन की असफलता के बाद प्रधानमंत्री ने कोरोना के खात्मे का दावा करना बंद कर दिया था और यह कहना शुरू कर दिया था कि कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालनी होगी। ज़ाहिर है कि इसने लोगों के डर को और बढ़ा दिया। इसी डर ने लोगों को टोने-टोटके की तरफ़ धकेलना शुरू कर दिया। लगातार इस तरह की खबरें आ रही हैं कि कोरोना के प्रकोप से बचने के लिए लोग कई तरह के धार्मिक अनुष्ठान कर रहे हैं, जंत्र-मंत्र और झाड़फूंक करने में लगे हैं, यहां तक कि जानवरों से लेकर मनुष्य तक की बलि दी जाने लगी है।

उड़ीसा के कटक ज़िले के एक पुजारी ने कोरोना वायरस को खत्म करने के लिए एक मनुष्य की बलि दे दी। उसका कहना था कि ऐसा करने का आदेश स्वयं भगवान ने सपने में आकर दिया था। नरसिंहपुर थाना क्षेत्र के बहुड़ा गाँव के ब्राह्मणी देवी मन्दिर में सरोज कुमार प्रधान नामक 52 वर्षीय व्यक्ति की बलि चढ़ाई गई। इससे कम भयावह घटना नहीं है जब झारखंड के कोडरमा ज़िले में कोरोना को भगाने के लिए 400 बकरों की बलि दे दी गई। कोडरमा ज़िले के चंदवारा प्रखंड के अन्तर्गत ग्राम उरवां के देवी मन्दिर में कोरोना को शांत करने के लिए हवन, पूजन और आरती का आयोजन हुआ और उसके
बाद वहां मौजूद लोगों ने देवी माता को प्रसन्न करने के लिए 400 बकरों की बलि चढ़ा दी। अन्धविश्वास के मामले में बिहार भी पीछे नहीं है। जहां इस कहानी का ज़ोरों से प्रचार हो रहा है कि गायें चराने गईं
दो औरतों के सामने एक गाय अचानक औरत में बदल गई। इस चमत्कार से डरकर जब औरतें वहां से भागने लगीं तो, उस औरत ने उनको रोका और बताया कि वह कोरोना माई है, यानी कोरोना की देवी। देवी ने उन औरतों को कहा कि वह लोगों से रुष्ट है और अगर माई को प्रसन्न करना है, तो औरतें मेरी पूजा करें। देवी ने पूजा की विधि भी बताई कि एक गड्ढा खोदकर पहले नौ लड्डू, नौ फूल, नौ लौंग से उसकी पूजा करें और बाद में पूजा की सारी सामग्री गड्ढे में दफ़ना कर गड्ढे को बंद कर दें। इससे कोरोना भी दफ़न हो जाएगा। इसके बाद बिहार में जगह-जगह औरतें झुंड बनाकर बताई गई विधि के अनुसार पूजा करने लगीं, यह मानकर कि इससे उन्हें कोरोना से मुक्ति मिल जाएगी। अन्धविश्वास की एक और घटना मध्यप्रदेश के रतलाम ज़िले में हुई जहां लोगों के हाथ चूमकर कोरोना का इलाज करने वाले तांत्रिक असलम बाबा उर्फ़ अनवर शाह कोरोना के संक्रमण से न केवल खुद मर गए बल्कि अपने कई भक्तों को भी संक्रमण से ग्रसित कर गए। अन्धविश्वास की ये कुछ घटनाएं हैं जिनकी अख़बारों में रिपोर्टिंग हुई है। न मालूम देश में कहां-कहां किस-किस तरह के टोने-टोटके किये 
जा रहे होंगे। चेचक की वेक्सीन द्वारा पूरे देश को कई दशकों पहले चेचक-मुक्त किया जा चुका है। इसके बावजूद आज भी पूरे उत्तर भारत में चेचक की देवी शीतला माता की पूजा की जाती है, उसको प्रसन्न रखने के लिए व्रत-उपवास रखे जाते हैं और हर साल होने वाले मेलों में लाखों लोगों की भीड़ जमा होती है। 

यह हमारे देश के पिछड़ेपन  की निशानी है कि संविधान में वैज्ञानिक चेतना को जनता में प्रसारित करने की बात शामिल किये जाने के बावजूद अन्धविश्वास में कमी नहीं आई है, बल्कि कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर सभी राजनीतिक पार्टियां लोगों को अन्धविश्वासों के इसी अंधेरे में कैद रखना चाहती हैं। शिक्षा का भी ढांचा इस तरह का है कि विज्ञान की शिक्षा भी वैज्ञानिक चेतना पैदा नहीं करती, बल्कि वे विज्ञान के सिद्धांतों को ज्ञान की बजाय कौशल की तरह ग्रहण करते हैं। इस तरह विज्ञान उनके जीवन को सोच के स्तर पर बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर पाता। दरअसल वैज्ञानिक चेतना फैलाने के लिए व्यापक जन-आंदोलनों की ज़रूरत है, हालांकि उसमें कई तरह के खतरे भी निहित हैं। लोगों में इन अंधविश्वासों के विरुद्ध जन-जागरण करने वाले महान विवेकवादी नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एम. एम. कलबुर्गी और गोरी लंकेश की हत्याएं पिछले सात-आठ सालों में ही की गईं हैं। जो ताकतें इस देश को हिंदू राष्ट्र में बदलना चाहती है, और जो अभी सत्ता पर काबिज़ हैं, वही यह भी चाहती हैं कि जनता में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार न हो क्योंकि जहां वैज्ञानिक चेतना पनपेगी, वहां सांप्रदायिक राष्ट्रवाद अपनी जड़ें नहीं जमा सकता।

मोबाइल : 9810606751

Sunday 26 July 2020

अंतरसंबंध ।

अंतरसंबंध ।
संपूर्णता में इस ब्रह्मांड का न ही कोई प्रस्थान बिंदु है और न ही कोई गंतव्य स्थान। यह दोनों सिरों पर समान रूप से खुला है। समय असीमित है। यदि इसकी कोई सीमा होती तो इसका कहीं आरंभ भी होता। यदि आरंभ होता तो उत्पत्ति का प्रश्न उभरता। यदि उत्पत्ति की बात होती तो उत्पत्तिकर्ता भी होता ।
प्रस्थान का प्रश्न ब्रह्मांड पर लागू नहीं होता। हां, यह प्रश्न ब्रह्मांड में घटित होने वाली सभी घटनाओं व प्रक्रियाओं पर समान रूप से लागू होता है। क्योंकि इन घटनाओं या प्रक्रियाओं की इसी ब्रह्मांड में उत्पत्ति है और सीमा है। हम ब्रह्मांड की कोई सीमा तय नहीं कर सकते ।हम इसकी आयु तय नहीं कर सकते। यह अनादि है ।यह अनंत है और हमेशा रहेगा भी ।अपने कारण और परिणाम के लिए यह स्वयम जिम्मेवार है।
लेकिन जहां स्वतंत्र रूप में स्वयम अपने आप में कुछ नहीं है। हर वस्तु ,घटना या प्रक्रिया एक -दूसरे से जुड़ी हुई है। यह अंतहीन श्रृंखलाओं का अंतहीन सिलसिला है। इस श्रृंखला में अभी तक कोई ब्रेक नहीं आया है। अर्थात यह श्रृंखला ही है जो इस ब्रह्मांड को जोड़े हुए है। यदि हम अपनी एक अंगुली भी हिलाते हैं तो इसका अर्थ है कि हम इस पूरे ब्रह्मांड को डिस्टर्ब कर रहे हैं। इस श्रृंखला को हम ब्रह्मांड के संबंधों का नाम देते हैं। इन सभी अंतरसंबंधों का अस्तित्व पूर्ण रुप से स्वतंत्र नहीं है अपितु एक दूसरे के सापेक्ष है। अकार्बनिक प्रकृति में ये संबंध यांत्रिक ,भौतिक या रासायनिक किसम के हैं ।इनके साधन आपसी संपर्क या विशेष प्रकार के क्षेत्र चाहे वे चुंबकीय हो या गुरुत्वीय या कोई और हों , इनमें थोड़ा सा भी बदलाव सभी को प्रभावित करता है। लेकिन कार्बनिक दुनिया में जिसमें जैविक व समाज आते हैं ये सम्बन्ध ज्यादा जटिल हैं। जैसे-जैसे जैविक संसार जटिल होता जाता है समाज विकसित होता जाता है ये संबंध और भी जटिल होते जाते हैं ।यहां ये संबंध विचार या चेतना के रूप में प्रभावशाली होते हैं। यहां इन संबंधों के कुछ रूप इस प्रकार हैं – स्थान अर्थात दूरी, स्पर्श, कारणता व प्रभाव, आवश्यकता एवं संयोग, नियम संचालित ,फौरी, आंतरिक व बाहरी, गतिज एवं स्थितिज एवं फीडबैक आदि -आदि। इन सभी संबंधों का अपना आधार है। अर्थात इन संबंधों के साथ कुछ- न- कुछ जुड़ा हुआ है ।ये केवल कहने के लिए संबंध नहीं है। यही विश्व की पदार्थीय एकता है। और दर्शन की भाषा में इसे ही सार्वभौमिक अस्तित्व की गारंटी कहा जाता है ।
संज्ञान प्रक्रिया में सबसे पहले हमें वस्तुएं जैसी भी है दिखाई देती हैं या महसूस होती हैं। इन पर कौन-कौन से संबंध किस -किस प्रकार के कार्य कर रहे हैं यह समझने के लिए नजर पैनी करनी पड़ती है। इन सभी पहलुओं को समझे बिना हम यथार्थ की समझ तक नहीं पहुंच सकते। इस पर भी विडंबना यह है कि जब कोई वस्तु, घटना या प्रक्रिया थोड़ी बहुत समझ की पकड़ में आती है यह अपना चरित्र बदल चुकी होती है। हमारी समझने वाली नजर भी बदल चुकी होती है। और जिस उद्देश्य के लिए हम समझना चाहते थे वह अपने स्थान से हिल चुका होता है। इसलिए यथार्थ हमेशा आंशिक रूप में ही पकड़ में आता है।

वेद प्रिय 

हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति

  परिचय हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति एक स्वयंसेवी संस्था है।यह संस्था बिना किसी सरकारी वित्तीय सहयोग के कार्य करती है। समिति के कार्य समाज द्...