सतत (टिकाऊ) विकास की चुनौतियाँ एवं कुछ समाधान
कोविड -19, यानी कोरोना महामारी, के फैलने के बाद लॉकडाउन ने सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था को एक बार अस्त-व्यस्त कर दिया है। अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाना एक बहुत बड़ी चुनौती रहेगी। भारत में लॉकडाउन की घोषणा 24 मार्च 2020 को रात को 8 बजे टेलिविज़न पर एक प्रसारण में प्रधानमंत्री ने केवल चार घंटे का नोटिस दे कर की। भारत का लॉकडाउन सब से लम्बे समय (68 दिन) के लिए और सारी अर्थव्यवस्था पर लागू किया गया था। इसलिए भारत की अर्थव्यवस्था एकदम ठप्प पड़ गई और बहुत गहरे ढंग से प्रभावित हुई। भारत की अर्थव्यवस्था पहले ही 2016 के विमुद्रीकरण और जी. एस. टी. के लागू करने से लड़खड़ाई हुई थी। इसे संभलने में काफ़ी समय लगेगा। आगे का कुछ समय विशेषकर गरीब लोगों और निम्न मध्यम वर्ग के लिए के काफ़ी कष्टमय और चुनौतीपूर्ण होगा। लॉकडाउन के दौरान होने वाले कष्टों से, विशेषकर प्रवासी मज़दूरों की त्रासदी से, तो सभी लोग भली भाँति परिचित ही हैं।
कोविड -19 और लॉकडाउन के अनुभव से कुछ तात्कालिक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं :
1.कोविड -19 ने दिखा दिया है कि विज्ञान की खोजों की भी कुछ सीमाएं हैं। विज्ञान की खोजें प्रकृति की चुनौतियों के मुकाबले अपर्याप्त ही रहेंगी। प्रकृति के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए क्योंकि उससे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों का शायद हम मुकाबला न कर पाएं। यदि प्रकृति से अधिक छेड़छाड़ करेंगे तो को उसके भयंकर और दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर ही रहना होगा।
2.मनुष्य, समाज और प्रकृति में गहन सम्बन्ध है। प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर के कोई देश या कोई व्यक्ति अकेले में सुरक्षित नहीं रह सकता। एक देश के लोगों की सुरक्षा दूसरे देश के लोगों की सुरक्षा से भी जुड़ी हुई है। कोविड-19 महामारी ने दिखा दिया है कि यदि ऐसी आपदा एक देश में आती है तो दूसरे देश इससे अछूते नहीं रह सकते।
3.लोगों के स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को बाज़ार पर या निजी डॉक्टरों पर नहीं छोड़ा जा सकता। स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएं उपलब्ध करवाना समाज की ज़िम्मेदारी है और सरकार को इस ज़िम्मेदारी को निभाना होगा।
4.विपत्ति में लोगों के खाने और रोज़गार का प्रबंध सरकार को करना होगा। इसे भी केवल बाज़ार पर ही नहीं छोड़ा जा सकता।
5.संकट की घड़ी में खाद्य पदार्थों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। इसके लिए हर देश को आत्मनिर्भर बनना पड़ेगा, नहीं तो संकट और अधिक विकराल रूप धारण कर लेगा और स्थिति को संभालना कठिन हो जाएगा।
कोविड -19 महामारी ने सभी देशों की सरकारों को मजबूर कर दिया है कि वे अपने देश की विकास प्रक्रिया का एक बार फिर से अवलोकन करें । सारी दुनिया के बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री इस बहस में लगे हुए हैं कि आगे की क्या रणनीति हो कि इस प्रकार की विपदा का कम से कम तकलीफों के साथ सामना कर सकें। विकास प्रक्रिया सतत, यानी टिकाऊ, होनी चाहिए ताकि पृथ्वी पर जीवन प्रक्रिया स्वास्थ्यवर्धक हो और सामाजिक जीवन सभी के लिए सुखमय हो सके ।
सतत (टिकाऊ) विकास प्रक्रिया के तीन मुख्य पहलू हैं :
(1) विकास प्रक्रिया ऐसी हो जो समाज के सभी लोगों को लाभ पहुंचाए। यदि विकास प्रक्रिया ऐसी होगी जो कुछ लोगों को अमीर बनाए और कुछ को गरीब रखे, और ये फ़ासला बढ़ता ही जाए तो ऐसी आर्थिक विकास प्रक्रिया सामाजिक रूप से टिकाऊ नहीं हो सकती। ऐसी अर्थव्यवस्था में लोगों में अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष चलता रहेगा। ऐसे विकास को किसी भी नैतिकता के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता।
(2) यह ठीक है की प्राकृतिक साधनों के उपयोग के बिना मनुष्य किसी वस्तु का उत्पादन नहीं कर सकता लेकिन प्रकृति का दोहन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि प्रकृति इसकी भरपाई फिर से कर सके। यदि हम प्रकृति के पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ देंगे तो प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और खतरा है कि पर्यावरण का संतुलन इतना न बिगड़ जाए कि धरती पर रहना ही कठिन हो जाए। ध्यान रहे कि हमारे पूर्वज प्रकृति की शक्तियों की पूजा किया करते थे। यद्यपि बहुत सी ऐसी क्रियाएं अब कर्मकांड में ही सिकुड़ कर रह गई हैं !
(3) विकास प्रक्रिया सतत बनी रहे और उसमें अधिक उतार-चढ़ाव न आएं क्योंकि उससे अर्थव्यवस्था में अस्थिरता आ जाती है।
आज दुनिया में आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी धारणा सब से प्रमुख है। दुनिया की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से इसी धारणा पर आधारित है। पहले हम संक्षेप में इस अवधारणा के विभिन्न अंगों का अवलोकन करेंगे और फिर इस व्यवस्था के दुनिया में ऐतिहासिक अनुभवों पर प्रकाश डालेंगे ताकि उनसे उपयुक्त निष्कर्ष निकल सकें और आगे की विकास प्रक्रिया को समाज के लिए और अधिक लाभकारी बना सकें।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इस मान्यता पर आधारित है कि यदि हर व्यक्ति अपने निजी हित और निजी कल्याण को समक्ष रख कर उत्पादन करे तो (i) बाज़ार अपने आप आर्थिक संसाधनों का कुशलतापूर्वक सदुपयोग सुनिश्चित कर देता है; (ii) उत्पादन के साधनों को उनके उत्पादन में योगदान के अनुसार मूल्य मिलता है; और (iii) यह अर्थव्यवस्था देश के उत्पादन को अत्यधिक स्तर पर ले जाएगी, जिससे समाज के सभी लोगों का कल्याण अधिकतम हो जाता है। तो सरकार को अर्थव्यवस्था में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए और ज्यादातर फैसले बाजार पर छोड़ देने चाहिए। आम भाषा में कहें तो पूंजीपतियों को पूरी छूट होनी चाहिए कि क्या उत्पादन करें और कितनी मजदूरी दें। बाजार तय करेगा कि क्या पैदा करना है, कैसे पैदा करना है और किसके लिए पैदा करना है। वास्तव में यह अर्थशास्त्र का सबसे प्रमुख प्रश्न है। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति अपनी पूंजी से मशीनें और कच्चा माल खरीदते हैं और मज़दूरों की सहायता से वस्तुओं का उत्पादन करते हैं और उन वस्तुओं को बाज़ार में बेच कर मुनाफ़ा कमाते हैं। इस मुनाफ़े से और उत्पादन करते हैं। मुनाफ़ा कमाना उत्पादन करने का मुख्य उद्देश्य है।
इस पूंजीवादी व्यवस्था के आधार पर दुनिया में कैसा विकास हुआ, अब हम इस पर अपनी दृष्टि डालेंगे। यूरोप में उद्योगों का तेज़ी से विकास लगभग 400 साल पहले शुरू हो गया था। विज्ञान और टेक्नोलॉजी में भी बहुत विकास हुआ जिससे इंग्लैंड में सब से पहले औद्योगिक क्रांति हुई और बाद में फ्रांस और स्पेन में। सचमुच, यूरोप में औद्योगीकरण बहुत तेज़ गति से हुआ। यद्यपि मेहनतकश जनता को विस्थापन प्रक्रिया में काफ़ी कष्ट उठाने पड़े और सरकार को भी हस्तक्षेप करना पड़ा। इन देशों के आम लोगों को भी काफ़ी आर्थिक लाभ मिला। परन्तु इस विकास प्रक्रिया के फलस्वरूप, विशेषकर इंग्लैंड, फ्रांस और स्पेन ने सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर अपना प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे एशिया और अफ्रीका के देशों को अपना उपनिवेश (कॉलोनीज़) बना लिया। फिर यूरोप से लोगों का माइग्रेशन करके अमेरिका महाद्वीप ( उत्तर अमेरिका : यू.एस.ए. एवं कनाडा, और दक्षिण अमेरिका यानी मैक्सिको, अर्जेंटीना, ब्राज़ील इत्यादि), ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में पूर्ण रूप से अपना कब्ज़ा जमा लिया और वहां के मूल लोगों का लगभग पूर्ण रूप से सफ़ाया कर दिया। यूरोप के प्रमुख देशों, विशेष कर ब्रिटेन, ने एशिया में भारत को और अफ्रीका के अनेक देशों को अपने उपनिवेश (कॉलोनीज़) बना कर, इन के लोगों का खूब शोषण किया और प्राकृतिक संसाधनों का खूब दोहन किया। इन देशों के उद्योगों को नष्ट कर दिया और इन्हें अपने उद्योगों की मंडी बना दिया।
दुनिया में पूंजीवादी विकास के इतिहास से हम निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं :
1. पूंजीवादी व्यवस्था ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को जन्म दिया और सारी दुनिया में लूटखसोट का साम्राज्य स्थापित किया।
2. पूंजीवादी देशों में कॉलोनीज़ के बंटवारे को ले कर बीसवीं शताब्दी में दो विश्व युद्ध हुए जिसमें करोड़ों लोगों की जान गई।
3. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकट-ग्रस्त आर्थिक व्यवस्था ही रही है, इसमें उत्पादन का उतार-चढ़ाव (ट्रेड साइकल्स) बना रहता है। 1930 के दशक में एक भारी डिप्रेशन (मंदी) का दौर आया, जिसने एक बार दुनिया की अर्थव्यवस्था को छिन-भिन्न कर दिया।
4. यह झूठ सिद्ध हुआ कि पूंजीवाद, उत्पादन के साधनों का निपुणतापूर्वक उपयोग करता है और उत्पादन के साधनों को उत्पादन में उनके योगदान के बराबर भुगतान करता है। मज़दूरों की मज़दूरी केवल गुज़ारे के स्तर पर ही बनी रहती है। इस व्यवस्था में बेरोज़गारी बनी रहती है और बढ़ती जाती है। वास्तव में इस व्यवस्था में मेहनतकशों का खूब शोषण होता है। इस व्यवस्था में अमीर, अमीर होता जाता है और गरीब, गरीब होता जाता है।
5. पूंजीवाद की सब से बड़ी आलोचना यह है कि इस व्यवस्था ने काम करने वाले लोगों को, यानी कि इंसानों को और प्रकृति, यानी प्राकृतिक संसाधनों, को बाज़ार में बिकने वाली वस्तुएं या माल बना दिया। इसे इंसान की इन्सानियत नष्ट हो गई और लोगों का बहुत शोषण हुआ है। प्रकृति को भी नष्ट कर रहे हैं जिससे पर्यावरण दूषित हो गया है और अगर अभी नहीं सम्भले तो पृथ्वी पर जीवन भी नष्ट हो जाएगा।
इसलिए यदि हम इसे एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था बनाना चाहते हैं तो ऐसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकल्प ढूंढना ही पड़ेगा।
समाजवादी अर्थव्यवस्था का अनुभव :
पूंजीवाद के विकल्प के रूप में, बीसवीं शताब्दी के शुरू में, सोवियत संघ में 1917 में समाजवादी क्रांति हुई। सोवियत संघ ने पूंजीवादी व्यवस्था से नाता तोड़ कर समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना की, जिसमें उत्पादन के साधनों का समाजीकरण किया गया और मंडी के स्थान पर योजनाबद्ध तरीके से विकास किया गया जिसमें रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा सम्बन्धी सभी सुविधाएं देना सरकार की ज़िम्मेदारी थी। देश का औद्योगीकरण बहुत तेज़ी से हुआ। पूंजीवादी देशों के मुकाबले में पर्यावरण की समस्या बहुत कम रही। दूसरे देशों को उपनिवेश बनाए बिना आर्थिक विकास कैसे किया जा सकता है, समाजवादी व्यवस्था इसका एक जीवंत उदाहरण है। पोलैंड, यूगोस्लाविया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, रोमानिया आदि देशों में बाज़ार पर आधारित समाजवादी व्यवस्था स्थापित हुई। बाद में चीन ने भी समाजवादी व्यवस्था अपना कर अपना विकास बहुत तेज़ी से किया। क्यूबा, उत्तरी कोरिया, वियतनाम आदि देशों में भी समाजवादी व्यवस्था स्थापित हुई। कुछ आंतरिक अंतर्विरोधों के कारण और पूंजीवादी देशों के लगातार षड्यंत्रों और लगातार अनेक प्रकार के हमलों के कारण इन देशों में समाजवादी व्यवस्था स्थाई नहीं हो पाई और और इन देशों में समाजवादी व्यवस्था का विघटन हो गया। लेकिन समाजवादी विकास प्रक्रिया ने दिखा दिया कि पूंजीवादी शोषण के बिना विकास कैसे किया जा सकता है। समाजवाद को एक झटका तो लगा है पर समाजवाद का विचार तब तक जीवित रहेगा जब तक दुनिया में शोषण की प्रक्रिया जारी रहेगी।
भारत में विकास प्रक्रिया :
अँग्रेज़ों और यूरोप के दूसरे देशों से विशेषकर फ्रांसीसी और डच, भारत में लगभग 1600 ईस्वी में व्यापार के लिए आए। उस समय भारत राजनीतिक रूप से छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था और उन पर अनेक हिन्दू और मुसलमान राजा राज करते थे। मुग़लों का सब से बड़ा राज्य था जो देश के बड़े हिस्से पर राज करते थे। जहाँ तक अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध है, हिन्दू और मुस्लिम राजाओं में कोई विशेष अंतर नहीं था। सभी सामंतवादी शोषण करते थे। फिर भी विकास की दृष्टि से भारत एक अग्रणी देश था। उस समय भारत का दुनिया के व्यापार में बहुत बड़ा हिस्सा था, लगभग 25% से 30% तक। अँग्रेज़ (ईस्ट इंडिया कंपनी) और यूरोप के व्यापारीे सोना और चाँदी ला कर भारत से वस्तुएं ख़रीद कर और यूरोप में बेच कर मुनाफ़ा कमाते थे। भारत की आंतरिक कमज़ोरियों का अनुचित लाभ उठा कर, 1757 के प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को हरा कर अँग्रेज़ों ने बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया और भूमि कर कई गुणा बढ़ा कर किसानों का शोषण किया। धीरे-धीरे अँग्रेज़ों ने लगभग सारे भारत पर अपना कब्ज़ा जमा लिया और 1857 की लड़ाई के बाद ब्रिटिश सरकार ने सीधे रूप से भारत पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। इसके बाद और अधिक आर्थिक लूट की। भारत के सभी उद्योगों को नष्ट कर दिया और अपने देश में पक्का माल बना कर भारत में बेचना शुरू किया। भारत से कच्चा माल आयात करते थे और पक्का माल भारत में बेच कर खूब मुनाफ़ा कमाते थे। अर्थशास्त्री कहते हैं कि इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति और भारत के उद्योग को नष्ट करना एक समकालीन, व्यवस्थित रूप से जुड़ी हुई प्रक्रिया थी, यानी इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति की कीमत भारत ने चुकाई। अँग्रेज़ों ने भारत पर लगभग 200 साल राज किया और देश के प्राकृतिक साधनों और जनता को खूब लूटा। इसलिए 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो भारत सुई से ले कर हवाई जहाज़ तक, लगभग सभी औद्योगिक वस्तुओं का ब्रिटेन से आयात करता था। ऐसी स्थिति में देश को विकसित करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी।
भारत की आज़ादी के बाद की विकास प्रक्रिया :
भारत की आज़ादी के संघर्ष में देश के राष्ट्रीय नेतृत्व और आम लोगों ने आज़ादी के बाद विकास के सुनहरे सपने संजोए थे कि वे अपनी आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से सदा के लिए निजात पा लेंगे। इन सपनों को पूरा करने के लिए प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने योजनाबद्ध तरीके से विकास और समाजवादी नमूने पर समाज की संरचना की परिकल्पना की। जवाहर लाल नेहरू पश्चिम की लोकतांत्रिक व्यवस्था, समाजवाद की परिकल्पना और सोवियत संघ के योजनाबद्ध आर्थिक विकास से काफी प्रभावित थे। इन तीनों के सम्मिश्रण पर आधारित प्रजातांत्रिक राज्य की स्थापना और मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता चुना। लोग सरकार का चुनाव लोकतांत्रिक ढंग से वोटों के द्वारा हर पांच वर्ष के लिए करेंगे। अर्थव्यवस्था की चाबी सार्वजनिक क्षेत्र में मूलभूत और भारी उद्योगों को स्थापित कर के सरकार के हाथों में रहेगी और लोगों के उपभोग की वस्तुओं का निर्माण निजी उद्योगपतिओं के हाथों में होगा पर उनको उद्योग लगाने के लिए लाइसेंस सरकार से लेना होगा ताकि निवेश प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में हो और आर्थिक शक्ति कुछ हाथों में केंद्रित न हो पाए। गांवों और कृषि के समग्र विकास के लिए कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की परिकल्पना की गई।
इस समझ के अनुरूप 1951 से पहली पंचवर्षीय योजना को लागू किया गया और मूलभूत उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित किया गया। दूसरी पंचवर्षीय योजना में निम्नलिखित उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित किया गया : (1) लोहे और स्टील की कंपनियां भिलाई, राउरकेला, बोकारो और दुर्गापुर में; (2) कोयले की खदानों का विकास; (3) बिजली की मशीनें बनाने के लिए भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड (बी.एच.ई.एल); (4) हवाई जहाज़ बनाने के लिए हिंदुस्तान एयरोनॉटिकल लिमिटेड; (5) सीमेंट की फैक्ट्रियां; (6) पेट्रोलियम के कुंओं का विकास; (7) बहुआयामी हाइड्रो डैम और टेलीकॉम, बिजली, रेलवे, सड़कों इत्यादि का विकास। इस सब से भारत के मूलभूत औद्योगिक ढांचे का अभूतपूर्ण विकास हुआ।
कृषि विकास रास्ता :
कृषि के विकास के लिए 1950 मे ज़मींदारी प्रथा को खत्म करने का कानून बना कर लागू किया गया और मुज़ारों के अधिकार सुरक्षित करने के लिए टेनेंसी एक्ट बनाए और लागू किए गए। समझ यह थी कि अगर भूमि सम्बंधों में सुधार हो जाए और खेती पर किसान (काश्तकार) के अधिकार सुरक्षित हों तो कृषि विकास का रास्ता अपने आप खुल जाएगा। लेकिन सरकार पर और गांवों में सामंतवादी लोगों का वर्चस्व था और वोट बैंक की राजनीति के कारण भूमि सुधार एक सीमा के बाद सफल नहीं हो पाए। 1960 के दशक में मानसून फेल होने के कारण खाद्यान्नों की भारी कमी हो गई। दूसरे विकल्पों को छोड़ कर सरकार ने कृषि में सघन खेती का पूंजीवादी विकास का रास्ता अपनाया जिसे ‘हरित क्रांति’ के नाम से जाना जाता है। सघन खेती से कृषि का उत्पादन बहुत बढ़ा और देश खाद्यान्नों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया। लेकिन कृषि का उद्देश्य, मुनाफ़े के लिए उत्पादन करना हो गया जिसके लिए खेती में उपयोग की जाने वाली धरती का खूब दोहन किया गया। ज़रूरत से अधिक रसायनिक खादों और पेस्टीसाइड्स के उपयोग से धरती के उपजाऊपन/उर्वरता में कमी आई और अनाज में रसायनों की मात्रा अधिक होने के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ रहा है। सिंचाई के लिए धरती के नीचे से ट्यूबवेल के द्वारा पानी का निकाल, रीचार्ज की क्षमता से अधिक होने के कारण धरती के नीचे पानी का स्तर बहुत नीचे चला गया है और पानी सदा के लिए खारा होता जा रहा है और खतरा है कि पानी दोबारा मीठा नहीं बन सकेगा। इस से भूमि के बंजर होने का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। यह सब टिकाऊ खेती का रास्ता नहीं है। कृषि विकास का रास्ता बदलना होगा और ऑर्गेनिक खेती को प्रोत्साहित करना होगा।
औद्योगिक विकास का रास्ता :
जैसा कि पहले कहा गया है, मूलभूत उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित किया गया। खाद्य वस्तुओं का उत्पादन निजी (प्राइवेट) क्षेत्र के हवाले कर दिया गया। निजी क्षेत्र में उद्योगों को लाइसेंस की नीति से विनियमित किया गया ताकि उद्योगों में एकाधिकार का विकास न हो और कोई बड़ा उद्योगपति उपभोक्ताओं को अनुचित ढंग से अधिक कीमत वसूल कर शोषित न कर सके, इसके लिए कानून (MRTP Act) लागू किया गया। इस तरह की औद्योगिक नीतियां 1951 से 1980 तक लागू रहीं।
औद्योगिक नीति प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं हो पाई। देश और विदेश के पूंजीपतियो ने आर्थिक मूलभूत ढांचे का विकास तो सरकार से करवाया पर लाइसेंसिंग नीति को असफल बनाने के लिए सभी हथकंडे अपनाए। अफसरशाही भी खूब भ्रष्टाचार में लिप्त हो गई। पूँजीपतियों ने राजनीतिज्ञों को अपने वश में कर के खूब फायदे उठाए। इस सब से कोटा-परमिट राज की स्थापना हो गई जिसमें भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया। आम जनता को भी अफ़सरशाही के हाथों काफ़ी परेशान होना पड़ा। ऐसी स्थिति में पूँजीपतियों के दबाव से सरकार ने 1980 के दशक के शुरू से आर्थिक नीतियों में परिवर्तन करना शुरू किया और 1991 में तो पूरी तरह अर्थव्यवस्था को देश और पूँजीपतियों के हवाले कर दिया। देश के विकास की दर तो बहुत बढ़ गई परन्तु बेरोजगारी भी बढ़ गई पर अमीर और गरीब में फ़ासला बढ़ता गया। गरीबी रेखा से नीचे लोगों की संख्या 50% से अधिक है और अब तो भुखमरी भी बढ़ती जा रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं निजी हाथों में सौंपने के कारण इतनी महंगी हो गई हैं कि आम व्यक्ति की क्षमता से बाहर हैं। पर्यावरण की तो धज्जियाँ उड़ गई हैं। कुछ शहरों में हवा तो इतनी दूषित हो गई है कि लोगों का रहना दूभर हो गया है। हवा, पानी, मिट्टी, खाद्यान्न, सब्ज़ी और फल इतने दूषित हो गए हैं कि स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गए हैं। 2016 से देश में आर्थिक संकट गहराता ही जा रहा है और अब तो कोरोना महामारी के बाद लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है!
भारत में टिकाऊ विकास के लिए सबक :
1.विस्थापन से विकास प्रक्रिया :
बड़े डैम बनाने की नीति से, कोयला खानों और दूसरे मिनरल्स की खानों और जंगलों से इमारती लकड़ी के बेरोक-टोक कटने से एक ओर तो पर्यावरण खतरे में पड़ गया है और दूसरी ओर लोगों, विशेषकर जनजातियों के लोगों, के विस्थापन और रोज़ी-रोटी का भयंकर संकट खड़ा हो गया है, विस्थापित लोगों के पुनर्वास की कारगर नीति न होने के कारण कई प्रकार के आंदोलन खड़े हो गए हैं, जैसे कि नक्सल-बाड़ी आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन और चिपको आंदोलन इत्यादि। इन आंदोलनो की मांगें वास्तविक हैं लेकिन सरकार और पूंजीपति ठेकेदार इन समस्याओं पर उचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। हमें भविष्य में सतर्क रहना होगा कि इस प्रकार की गलतियां न दोहराएं।
2.प्राकृतिक संसाधनों को निजी व्यापारियों को बेचना :
प्राकृतिक संसाधन सार्वजनिक क्षेत्र में समाज/सरकार के हाथों में ही सुरक्षित रह सकते हैं। दूसरा, प्राकृतिक संसाधनों, जैसे कि कोयले की खानें, पेट्रोल के प्राकृतिक स्रोत, 2-G स्पैक्ट्रम आदि, का मूल्यांकन करना, यानी उनकी ठीक से कीमत निर्धारित करना, बहुत कठिन काम है। इसलिए इनको बेचने की प्रक्रिया में कई कांड हुए। पिछले अनुभव बताते हैं कि निजी व्यापारी प्राकृतिक संसाधनों का मुनाफ़े के लालच में इतना दोहन कर लेते हैं कि उनका पुनः विकास नहीं किया जा सकता जिससे पर्यावरण में असंतुलन होने का खतरा बढ़ जाता है।
3.भारत में 1991 से लागू की गई आर्थिक नीति के अनुसार अर्थव्यवस्था को देश और विदेश के पूँजीपतियों के हवाले कर दिया गया। इससे देश के उत्पादन में तेज़ गति से वृद्धि शुरू हो गई। पूंजीवादी व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन बाज़ार में मांग के अनुसार होता है और मांग केवल वही लोग करेंगे जिनके पास खरीदने की ताकत है। एक गरीब देश में पहले गरीब लोगों की बाज़ार से खरीदने की ताकत बढ़ानी होगी जो गरीब लोगों को रोज़गार देकर आय बढ़ाने से बढ़ेगी। हम देश में क्या उत्पादन करते हैं और किसके लिए करते हैं, यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसलिए केवल आर्थिक विकास दर और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, आर्थिक विकास का ठीक पैमाना नहीं हो सकते। देश का विकास तो तेज़ गति से हुआ पर उसका लाभ ऊपर के केवल 20-30% लोगों को ही हुआ है, और नीचे के 50% लोगों को कोई विशेष लाभ नहीं पहुंचा। देश के विकास में लोगों में आय की असमानता कम होनी चाहिए, न कि बढ़नी चाहिए। लेकिन भारत में अमीर और गरीब में फ़ासला बढ़ता जा रहा है। रोज़गार का प्रबंध अपर्याप्त है और बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ते निजीकरण के कारण, ये सेवाएं आम व्यक्ति की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं, जबकि इन बुनियादी सुविधाओं पर सब लोगों का अधिकार होना चाहिए। ऐसी विकास प्रक्रिया सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं ठहराई जा सकती।
4.भारत में खेती की विकास प्रक्रिया पर भी पुनः विचार की आवश्यकता है। मिट्टी की उत्पादकता कम होती जा रही है और रसायनिक खादों, कीटनाशक दवाइयों के अधिक छिड़काव से खाद्यान्न ज़हरीले हो जाते हैं, जिससे नागरिकों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है ।
आगे का रास्ता :
1.कोविड-19 महामारी ने दुनिया और भारत के विकास मॉडल का पर्दाफ़ाश कर इसकी कमियों को उजागर कर दिया है। पिछला अनुभव बताता है कि यदि देश के नागरिक सभी फ़ैसलों को सरकार और पूंजीपतियों पर छोड़ देंगे तो वे दोबारा विनाशकारी नीतियों को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए अपना लेंगे। शुद्ध पूंजीवादी व्यवस्था लोक हित में नहीं है। इसलिए इस व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन करना होगा।
2.नागरिकों और प्राकृतिक संसाधनों को बाज़ार में बिकाऊ वस्तुएं न बनने दें। प्रकृति का इतना दोहन न होने दें कि पर्यावरण इतना दूषित हो जाए कि पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाए।
3.हम प्रकृति और जन-कल्याण को उनके अपने भाग्य पर नहीं छोड़ सकते कि पूंजीपति जितना चाहें इनका शोषण कर सकें। पूंजीवादी व्यवस्था एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था नहीं है।1930 की दुनिया में मंदी और 2008 से दुनिया में आर्थिक और वित्तीय संकट ने स्पष्ट कर दिया है कि अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार को पूरी ज़िम्मेदारी निभानी होगी।
4.हमें वर्तमान आर्थिक नीतियों का पुनरावलोकन करना होगा और उन्हें जनहितकारी बनाना होगा। इसके लिए जागरूक नागरिकों की भूमिका अहम हो जाती है कि वे समस्याओं को उनके पूरे कद में समझें और समाज के स्वच्छ विकास के लिए सरकार पर नकेल डाल कर रखें ताकि वह जन-कल्याण की नीतियों को अपनाए। यही समय की सब से बड़ी चुनौती है।
-- प्रोफ़ेसर सुरेंद्र कुमार,
भूतपूर्व अध्यक्ष, अर्थशास्त्र विभाग,
महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक